कैदियों की भीड़ खतरनाक

0
178

दुनिया को समझने में किताबों की बड़ी भूमिका है। 2014 में अरुण फेरेरा की किताब में उन्होंने अपनी जिंदगी के उन पांच सालों के बारे में लिखा जो उन्हें ‘अंडर ट्रायल’ कैदी के रूप में बिताने पड़े। उन पर राजद्रोह का इल्ज़ाम था लेकिन 2014 में सभी मामलों में उन्हें बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया। 2007 में जब वे गिरफ्तार हुए, तब उनका बेटा दो साल का था। हम ये मान लेते हैं कि जो जेल में हैं, वे सभी अपराधी हैं। कुछ साल पहले ज्ञात हुआ कि देश में लगभग दो-तिहाई कैदी वास्तव में अभी अपराधी करार नहीं दिए गए। वे ‘अंडर ट्रायल्स’ हैं। यानी उनका और उनके गुनाह का फैसला नहीं हुआ है। वे अदालती निर्णय के इंतजार में जेल में समय बिता रहे हैं। 2015 के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 40% अंडर ट्रायल्स ने जेल में एक साल से कम समय बिताया था। लगभग 20% ऐसे थे जिन्होंने 1-2 साल कैद में बिताए। कई बार ऐसा भी हुआ कि कैदी को खुद पर लगे इल्जाम के लिए जो सज़ा हो सकती है, उससे भी ज़्यादा समय जेल में बिता दिया, बिना अदालती फैसला आए। इनमें कुछ अरुण फरेरा जैसे हैं, जिन्हें अदालत ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया।

न्यायिक प्रक्रिया ने ही अन्याय किया। ज़्यादातर अंडर ट्रायल्स कम पढ़े-लिखे, कमजोर तबके के लोग हैं। समाज में उन्हें गुनहगार ही माना जाएगा और निजी जिंदगी में, रोज़गार में दिक्कतें आ सकती हैं। लेकिन अंडर ट्रायल्स के सामने और भी दुःख हैं। देश में कई राज्यों में जेलों में उनकी क्षमता से बहुत ज़्यादा कैदी हैं। इससे कैद की जिंदगी और कठिन हो जाती है और उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। 2015 की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 115 कैदियों की मौत ख़ुदकुशी से हुई। आज अंडर ट्रायल्स की बात करना क्यों ज़रूरी है? हमें पता है कि कोरोना वायरस एक व्यक्ति से दूसरे में फैलता है और इससे बचने के लिए आपस में दूरी रखना ज़रूरी है। इस वजह से जेलों में कैद लोगों को भी बहुत खतरा है, खासकर जहां क्षमता से ज्यादा कैदी हैं। जेलों में भीड़ की समस्या केवल भारत में ही नहीं, ईरान, अमेरिका, इंग्लैंड में भी है। इन देशों में धीरे-धीरे सहमति बनी है कि इस समय कैदियों को रिहा कर देना न सिर्फ मानवीयता के नज़रिये से सही है बल्कि इसमें ही समझदारी है।

ईरान में करीब 50 हज़ार कैदियों को मार्च में छोड़ा गया; अमेरिका में ट्रम्प पहले इसका विरोध कर रहे थे लेकिन वहां भी कई राज्यों ने कैदी रिहा किए। भारत में खबरें आ रही हैं कि जेलों में कैदी कोरोना पॉजिटिव पाए गए। इस हफ्ते दिल्ली की मंडोली जेल में कोरोना से पहले कैदी की मौत का तब पता चला जब मौत के बाद जांच हुई। उसके साथ रहने वाले 17 कैदी भी पॉजिटिव मिले। जब देश की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है, तो जेलों में क्या हाल होगा। मार्च में सर्वोच्च न्यायलय ने आदेश दिया कि हर राज्य में कमेटी गठित हो ताकि जेलों में भीड़ घटाने पर विचार हो। दिल्ली के तिहाड़ से मार्च में चार सौ कैदी रिहा किए गए थे और येरवडा, पुणे में हज़ार कैदियों को रिहा किया गया। इस सब पर सरकार की तरफ से और तीव्रता की जरूरत है।

दुःख की बात यह है कि रिहाई में तीव्रता दिखाने की बजाय, सरकारें गिरफ्तारी में लगी हैं। एक तरफ नागरिकता कानून पर सवाल उठानेवालों को अरेस्ट किया जा रहा है, दूसरी तरफ अहमदाबाद में 34 मज़दूरों को एक महीने बाद ज़मानत मिली। उन्हें तब गिरफ्तार किया गया जब वे लॉकडाउन में घर जाने के लिए सड़कों पर उतर आए थे। तमिलनाडु के थूथुकुड़ी में एक बाप और बेटे को लॉकडाउन के उल्लंघन पर टोका गया तो उन्होंने दुकान तो बंद कर ली लेकिन अपशब्द इस्तेमाल करने पर गिरफ्तार किया गया और इतना टॉर्चर किया कि उनकी मौत हो गई। न्यायिक प्रक्रिया को हमेशा से सत्ता ने राजनैतिक मकसदों के लिए इस्तेमाल किया है। महामारी में सत्ता का ऐसा उपयोग अनैतिक, अमानवीय है।

रीतिका खेड़ा
(लेखिका अर्थशास्त्री व दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here