“दुनिया के तीस सबसे दूषित शहरों में भारत के 21 है। हमारे यहां सन 2019 में अकेले वायू प्रदूषण से 17 लाख लोग मारे गए।“ यह किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना वायरस जब फैंफडों या स्वांस-तंत्र पर अपना कब्जा जमाता है तो रोगी की मृत्यू की संभावना बढ़ जाती है। जिन शहरों के लोगों को फैंफडे वायू प्रदूषण से जितने कमजोर है, वहां कोविड का कहर उतना ही संहारक है। जान लें कि जैसे-जैसे तापमान बढेगा, दिल्ली एनसीआर में सांस के रोगी भी बढेंगे और इसके साथ ही कोरोना का कहर भी बढ़ेगा।
जरा बारिकी से गौर करें , जिन शहरों – दिल्ली, मुंबई, प्रयागराज, लखनऊ, इंदौर , भोपाल, पुणे आदि में कोरोना इस बार सबसे घातक है, वहां की वायु गुणवत्ता बीते कई महीनों से गंभीरता की हद से पार है। दिल्ली से सटे गाजियाबाद को बीते तीन सालों से देष के सबसे प्रदूषित शहर की सूची में पहले तीन स्थानों पर रहने की षर्मनाम ओहदा मिला है। गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतर्राष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है।
भले ही रास्ते में धुंध के कारण जाम के हालात न हों, भले ही स्मॉग के भय से आम आदमी भयभीत ना हो, लेकिन सूर्य की तपन बढ़ने के साथ ही दिल्ली की सांस ज्यादा अटकती है। एनसीआर में प्रदूषण का स्तर अभी भी उतना ही है जितना कि सर्दियों में धुंध के दौरान हुआ करता था। यही नहीं इस समय की हवा ज्यादा जहरीली व जानलेवा है। देष की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिषत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड्ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुंए से 17 फीसदी, पैटकॉक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिषत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि।
हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से परेषान दिल्ली वालों के फैंफडों को कुछ महीने हरियाली से उपजे प्रदूषण से भी जूझना पड़ता है। विडंबना है कि परागण से सांस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते है।, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और धनत्व का पता लगाने की कोई तकीनीक बनी नहीं है। वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है लेकिन जैसे ही जून-जुलाई में हवा में नमी का स्तर बढ़ता है। तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है। यह एलर्जी इंसान को गंभीर सांस की बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजेान लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है , ऐसे में परागण के षिकार लेागों के फैंफडे ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं। यदि ऐसे में इंसान पर कोरोना का आक्रमण हो जाए तो जल्दी ही उसके फेंफडे संक्रमित हो जाएंगे।
यह तो सभी जानते है। कि गरमी के दिनों में हवा एक से डेढ़ किलोमीटर ऊपर तक तेज गति से बहती है। इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान -पाकिस्तान के रास्ते आई रेत लेागों को सांस लेने में बाधक बनती है। मानकों के अनुसार पीएम की मात्रा 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर वायू होना चाहिए, लेकिन अभी तो पारा 37 के करीब है और यह खतरनाक पार्टिकल 240 के करीब पहुंच गए हैं। इसका एक बड़ा कारण दिल्ली में विकास के नाम पर हो रहे ताबड़तोड़ व अनियोजित निर्माण कार्य भी हैं, जिनसे असीमित धूल तो उड़ ही रही है , यातायात जाम के दिक्कत भी उपज रही है। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, और कोविड ।
यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानि एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलाकांत दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुंएं में बड़ी मात्रा में हाईड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोज इंसान के षरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है । इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण फेंफडें बेहद कमजोर हो जाते हैं । वायू प्रदूषण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। साथ ही दिल्ली में हरियाली सजाते समय ऐसे पेड़ों से परहेज करना जरूरी है जिनमें परागण बड़े स्तर पर गिरते हैं। कोरोना के मौजूदा चुनौतीपूर्ण दौर को और कठिन बनाने वाले हालात को लेकर ज्यादा सतर्क रहने की खास तौर पर जरूरत है।
पंकज चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)