महामारियों से लड़ने में हमारी विफलता को समझने के लिए हमें औपनिवेशिक भारत के इतिहास पर नजर दौड़ाना चाहिए। प्लेग, हैजा, चेचक, मलेरिया या स्पेनिश फ्लू के नियंत्रण में अंग्रेज सरकार की नाकामी ने एक बड़ी आबादी की जान ले ली थी। उसकी नाकामी का सबसे बड़ा कारण था महामारियों के नियंत्रण के लिए जरूरी इच्छा शक्ति का अभाव। उसे ज्यादा खर्च नहीं करना था और महामारी पर उसी हद तक काबू पाना था, जिससे कि ब्रिटिश हितों को बड़ा नुकसान न पहुंचे। भारत के लोगों, खासकर गरीब आबादी को बचाने का उसका कोई इरादा नहीं था। यही वजह है कि दुनिया भर में फैली महामारियों ने अन्य देशों की तुलना में भारत में ज्यादा जानें लीं।
दैवी आपदा वाली समझ
भारत में बीमारियों को लेकर लोगों की समझ बदलने का भी कोई प्रयास ब्रिटिश हुकूमत ने नहीं किया। जहां यूरोप में सामान्य लोग भी समझ गए थे कि बीमारियों की वजह कीटाणु हैं, भारत में लोगों को यह माने रहने के लिए छोड़ दिया गया था कि दैवी आपदा के कारण महामारी आई है। इस समझ का बने रहना अंग्रेजी हुकूमत के लिए इस मायने में फायदेमंद था कि इस वजह से लोग अस्पताल और साफ-सफाई पर अधिक खर्च करने के लिए दबाव नहीं बनाते थे।
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि महामारियों से निपटने में अंग्रेजी हुकूमत कभी भी आम लोगों को भागीदार नहीं बनाती थी। रोकथाम के उपायों को वह जबर्दस्ती लागू करती थी। इस बहाने उसे लोगों पर अपना दबदबा कायम रखने का एक नया मौका मिल जाता था। सरकार के इस रवैए का विरोध उस समय चरम पर पहुंच गया, जब प्लेग महामारी के दौरान लोगों पर हुए अत्याचारों का बदला लेने के लिए 1897 में चापेकर बंधुओं ने पुणे के प्लेग कमिश्नर की हत्या कर दी थी और सरकार के विरोध के लिए लोकमान्य तिलक को राजद्रोह के आरोप में जेल की सजा भुगतनी पड़ी थी।
भारत की आजादी के बाद महामारियों से निपटने की नीतियों में एक साफ बदलाव नजर आता है। सबसे बड़ा बदलाव जनभागीदारी का था। इसी वजह से चेचक और पोलियो जैसी बीमारियों के नियंत्रण में सरकार को जरूरी सफलता मिली। लेकिन इस जनभागीदारी का आधार रातोंरात तैयार नहीं हो गया। इसमें आजादी के आंदोलन की विचारधारा और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सोच की भूमिका अहम थी। नेहरू ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भारतीय समाज की सोच का हिस्सा बनाने पर जोर दिया। उन्होंने देश में विज्ञान और तकनीक के विकास के लिए उच्चस्तरीय संस्थान बनाए। आईआईटी, नैशनल लेबोरेटरीज जैसे संस्थानों ने सिर्फ विज्ञान और तकनीक के शोध में ही हिस्सा नहीं लिया बल्कि उन्होंने विज्ञान के प्रति सामान्य लोगों की जिज्ञासा भी जगाई। इन संस्थानों ने सुचिंतित प्रयासों के जरिए धीरे-धीरे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लोगों का चिंतन बदला। फिर भी सोच का यह बदलाव आबादी के एक छोटे हिस्से तक ही पहुंचा। व्यापक आबादी इन बदलावों से दूर रही। आम लोगों की बड़ी संख्या अंधविश्वासों में ही जकड़ी रही। मगर ध्यान देने की बात यह है कि अंधविश्वास की यह समस्या कम पढ़े-लिखे तबकों तक ही सीमित नहीं है। विज्ञान की उच्च शिक्षा ले चुके लोग भी इससे मुक्त नहीं हैं। सच तो यह है कि अपने देश में विज्ञान और अविज्ञान के बीच निर्णायक संघर्ष हो ही नहीं पाया।
इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय समाज की यह कमजोरी पिछले सालों में बढ़ी है और यह कमजोरी कोरोना महामारी से लड़ने की राह में बड़ी बाधा बनी है। कोरोना से लड़ने के लिए वैज्ञानिक सोच को मजबूती से पकड़े रहने की जगह हमने टोने-टोटकों के साथ-साथ उन धारणाओं और दवाओं को भी बेरोकटोक चलने दिया है, जिन्हें विज्ञान की कसौटियों पर परखा नहीं गया है। हम भूल गए कि विज्ञान और अंधविश्वास साथ-साथ नहीं चल सकते।
दूसरी लहर के आगमन की वैज्ञानिकों की चेतावनी को नहीं मानने और समय रहते इस पर काबू पाने में सफल न होने का बड़ा कारण वैज्ञानिक सोच का नकारा जाना भी है। विशेषज्ञों की जानकारी और वैज्ञानिक आंकड़ों को लेकर हम लापरवाह बने रहे। दूसरी लहर के आ जाने के बाद भी चुनावी रैलियां जारी रहीं और कुंभ स्नान चलता रहा। ध्यान रहे, इस दुस्साहस के पीछे सिर्फ तात्कालिक राजनीतिक लाभ की मंशा नहीं थी। इसके पीछे वह चिंतन भी काम कर रहा था, जो वैज्ञानिक सोच में विश्वास नहीं रखता है। यह चिंतन इस हद तक असरदार है कि स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए जिम्मेदार लोग भी बीमारी को पूर्वजन्म में किए गए पाप का फल मानते हैं। कोरोना काल में इस तरह की दवाइयां बाजार में बिकती रहीं, जिनके कोरोना पर असर की जांच नहीं हुई है। यह स्थिति कई मायनों में औपनिवेशिक काल से भी बदतर है। अंग्रेजों का रवैया अंधविश्वासों को नजरअंदाज करने का जरूर था, लेकिन वे उसका प्रचार-प्रसार नहीं करते थे। अभी तो राजनीति से जुड़े लोग इसके प्रसार में योगदान कर रहे हैं। यह केवल कुछ व्यक्तियों की बात नहीं है। यह एक संगठित राजनीति का हिस्सा है।
लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन
कोरोना महामारी के दौरान लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन का मसला भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। समय पर रोकथाम के कदम नहीं उठाना और आखिर में आकर आम लोगों की गतिविधियों पर हर तरह की पाबंदी लगा देना 1996 की प्लेग और 1918 की इंफ्लुएंजा महामारी के दौरान की गई सख्तियों की ही याद दिलाता है। अंग्रेजों ने सख्तियों को कानूनी जामा पहनाने के लिए 1897 में महामारी कानून बनाया था। उस समय भी जनता की भागीदारी सुनिश्चित नहीं की गई थी और कुपोषण और भुखमरी जैसे महामारी बढ़ाने वाले कारकों को अनदेखा कर दिया गया था। अभी भी वही बातें देखने को मिल रही हैं।
अनिल सिन्हा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)