बीते सप्ताह बिहार बोर्ड के परिणाम घोषित हुए हैं। परीक्षा में बैठे 16 लाख छात्रों में से 78 फीसद पास हुए। 2020- 2019 में भी पास होने वाले परीक्षार्थियों का प्रतिशत 80.5 फीसद और 80.7 फीसद था। पूरे साल स्कूल बंद रहने के बावजूद इस बार के परिणाम बुरे नहीं हैं। स्कूल में होने वाली पढ़ाई और परीक्षा का कोई संबंध है? कहा जाता है कि बिहार में ज्यादातर छात्र परीक्षा की तैयारी ट्यूशन या कोचिंग क्लास में करते हैं। शायद इसीलिए स्कूल बंद रहने का उतना असर रिजल्ट पर नहीं पड़ा। खैर, हर साल वैसे भी परीक्षा से सभी को परेशानी होती है। परीक्षा से कई महीने पहले छात्रों की तैयारी चालू हो जाती है। उसी के साथ माता-पिता और परिवार का टेंशन भी। इतना बोझ और दबाव क्यों है? क्योंकि 10वीं या 12वीं के नतीजों पर जि़ंदगी में आगे की दिशा तय होती है। 2005 के पहले से ही भारत में 90त्न से ज्यादा बच्चों का स्कूल में नामांकन होने लगा था। 2010 के बाद से यह आंकड़ा साल दर साल लगातार 95त्न से ऊपर रहा है। 10-12 साल पहले, अगर 10 बच्चे पहली कक्षा में नामांकन कराते थे, तो उनमें से बमुश्किल 5 बच्चे 8वीं तक पहुंच पाते थे। आजकल यह आंकड़ा 8 से 9 तक पहुंच गया है।
‘असर’ 2017 के अनुसार, 16 से 18 साल के उम्र के लगभग 85 फीसदयुवक-युवतियों के नाम स्कूल या कॉलेज में दर्ज हैं। ये आंकड़े एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं। देश के लगभग सभी बच्चे स्कूल में दाखिल हो रहे हैं और 8वीं तक तो पहुंच ही रहे हैं। उसके बाद अधिकतर लड़के- लड़कियां 10वीं की परीक्षा देते हैं। एक दशक में आया यह एक बहुत बड़ा बदलाव है। अब लगभग सभी छात्र माध्यमिक शिक्षा से होते हुए उच्च माध्यमिक के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। घर में किसी बच्चे का 10वीं तक पहुंचना, देश के अनेक परिवारों के लिए एक बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। अक्सर यह बच्चा उस घर का पहला सदस्य है जो शिक्षा के सफर में यहां तक पहुंचा है। 16 साल के छात्र, खुद के अरमान और अपने पूरे परिवार की उम्मीदों को लेकर आगे देख रहे हैं। परीक्षा के नतीजे यह साबित करेंगे कि भविष्य को लेकर उनकी ये इच्छाएं और अभिलाषाएं उनके पंखों को उडऩे में मदद करेंगी या बोझ बनकर उन्हें गिरा देंगी। 10 साल स्कूल में बिताकर हमारे बच्चे क्या सीखते हैं? आने वाले जीवन और आजीविका के लिए स्कूली शिक्षा उन्हें किस हद तक तैयार कर पा रही है? क्या परीक्षा परिणाम महज एक टिकट या प्रवेश पत्र है, जो अगले दरवाजे में प्रवेश पाने में मदद करेगा या यह भविष्य के जीवन के लिए उनकी तैयारी का भरोसेमंद संकेत है?
2017 का ‘असर’ सर्वेक्षण 14 से 18 साल के युवक-युवतियों पर केन्द्रित था। सर्वे के दौरान पढ़ पाने और बुनियादी गणित करने की उनकी क्षमता को जांचने के अलावा, रोज़मर्रा से जुड़े हुए कई सवाल उनसे पूछे गए। उदाहरण के लिए, अगर 300 रुपए की कमीज पर 15 फीसद की छूट मिलती है, तो कमीज़ की कीमत क्या होगी? 15 लीटर पानी को साफ करने में अगर क्लोरीन के तीन टेबलेट लगते हैं, तो 45 लीटर पानी की सफाई में कितने टेबलेट लगेंगे? जीवन रक्षक घोल के पैकेट पर लिखे गए निर्देश को पढ़कर सही तरीके से घोल कैसे बनाएंगे? सिफऱ् 50 प्रतिशत प्रतिभागी ही इन गतिविधियों को सही-सही कर पाए! एक तरफ परीक्षा के अंक और आंकड़े, दूसरी तरफ जीवन के ज़रूरी कौशल। क्या इन दोनों को जोडऩे की जि़म्मेदारी हमारी शिक्षा व्यवस्था की नहीं है? परीक्षा की व्युत्पत्ति दो शदों से मिलकर हुई है’परि’ और ‘ईक्षा’। परि मतलब ‘चारों ओर’ या ‘हर तरह से’ और ‘ईक्षा’ मतलब ‘देखनापरखना। जरा सोचिए ‘हर तरह से जांच-परख करना’ अगर परीक्षा है तो इसे सिर्फ किताबों या पाठ्यपुस्तकों तक ही सीमित रखना चाहिए या भविष्य में काम आने वाले जीवन के ज़रूरी कौशलों से भी जोडऩा चाहिए?
रुक्मिणी बनर्जी
(लेखिका ‘प्रथम’ एजुकेशन फाउंडेशन से संबद्ध हैं ये उनके निजी विचार हैं)