सोनिया गांधी ने 2018 में एक कार्यक्रम में एक स्वीकारोक्ति की थी। उन्होंने कहा था, ‘भाजपा कई लोगों को समझाने में सफल रही है कि कांग्रेस ‘मुस्लिम पार्टी’ है।’ उनकी टिप्पणी एक तरह से अनकही स्वीकारोक्ति थी कि उभरते राजनीतिक हिन्दुत्व का सामना करने में नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता असफल रही है। 3 साल बाद, जब फिर चुनावी मौसम है, तो पार्टी की धर्मनिरपेक्ष पहचान पर सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि उस पर खुलकर ‘मुस्लिम’ पार्टियों का साथ देने का आरोप लग रहा है।
केरल में कांग्रेस के इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) के साथ दीर्घकालिक गठबंधन पर सत्ताधारी लेफ्ट फ्रंट और भाजपा, दोनों की नजर है। भाजपा, लीग के हित को लेकर पक्षपात करने और अन्य समुदायों को नजरअंदाज करने को लेकर कांग्रेस को निशाना बना रही है।
असम में कांग्रेस, बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (AIUDF) से जुड़ी है, एक ऐसी पार्टी जो मुख्यत: राज्य की बंगाली भाषी मुस्लिम अप्रवासी आबादी का प्रतिनिधित्व करती है। और पश्चिम बंगाल में, कांग्रेस लेफ्ट के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा है। इसमें अब इंडियन सेक्युलर फ्रंट भी शामिल है, जो स्थानीय धार्मिक नेता अब्बास सिद्दीकी ने बनाया था। हर मामले में भाजपा इन गठजोड़ों की बातें उछालकर अपने हिन्दू वोट बैंक को मजबूत कर रही है।
इन गठजोड़ों की प्रकृति और प्रतिक्रिया कांग्रेस के अंदर और मुख्यधारा की धर्मनिपरेक्ष राजनीति में गहराते संकट को दिखाती है। इंदिरा गांधी द्वारा 1976 में आपातकाल के दौरान ‘धर्मनिरपेक्षता’ को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करवाने के बाद से ही दशकों से कांग्रेस के लिए यह संकट बढ़ता जा रहा है। श्रीमति गांधी का कदम व्यावहारिक राजनीति था, जो अल्पसंख्यकों में उनकी पकड़ मजबूत बनाने के लिए उठाया गया था।
जहां नेहरू के लिए धर्मनिरपेक्षता आस्था का विषय था, वहीं इंदिरा को ‘दिखावटी’ धर्मनिरपेक्षता के इस्तेमाल का दोषी माना गया। फिर वह पंजाब हो, असम या जम्मू-कश्मीर, श्रीमति गांधी ने वोट की दौड़ में विविध धार्मिक ताकतों से जुड़कर धर्मनिरपेक्षता के दिखावे को भी दरकिनार कर दिया। अकाली दल को निशाना बनाने के लिए जरनैल सिंह भिंडरांवाले जैसे आतंकी, अलगाववादी तक को संरक्षण देना बताता है कि वे कैसे आग से खेल रही थीं। यह ऐसी आग थी, जो उनकी त्रासद हत्या पर खत्म हुई।
बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने हिन्दू और मुस्लिम कट्टरवादियों का तुष्टिकरण कर धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को और नुकसान पहुंचाया। फिर वह एक तरफ शाहबानो मामले में अदालत के फैसले को पलटना या सलमान रश्दी की किताब सैटनिक वर्सेस पर प्रतिबंध हो, या दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद के ताले खोलना और अयोध्या में विवादास्पद भूमि पर शिलान्यास की अनुमति देना हो।
राजीव सरकार ने खुद को धार्मिक अतिवाद को शांत करने में उलझा लिया। अशांत 1980 के दशक के दौरान एक ओर धर्मनिरपेक्ष खरगोश के साथ दौड़ने, वहीं दूसरी ओर सांप्रदायिक शिकारी कुत्ते के साथ शिकार करने की राजनीति की पराकाष्ठा लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में रथ यात्रा और 1992 में बाबरी विध्वंस के रूप में हुई और भाजपा व संघ परिवार शक्तिशाली स्थिति में पहुंच पाया।
तब से, जहां भगवा भाईचारा मजबूत होता गया, वहीं विभाजनकारी हिन्दुत्व राष्ट्रवाद द्वारा मिल रही चुनौती पर कांग्रेस वैचारिक और संगठनात्मक प्रतिक्रिया देने में संघर्ष करती रही है। सरकार पर ‘पहला अधिकार’ अल्पसंख्यकों का है, यह दावा करने वाले मनमोहन सिंह से लेकर गुजरात चुनाव के दौरान मंदिर-मंदिर जाने राहुल गांधी और अपने नेता को ‘जनेऊ-धारी’ हिन्दू बताने वालों के बीच कांग्रेस झूलती रही है। नतीजतन, राजनीतिक पहचान की निशानी के रूप में धर्म को खारिज करने वाली मध्यमार्गी धर्मनिरपेक्ष सोच समय के साथ खोखली होती गई और पीछे छूट गए समझौतों के खाली खोल।
कांग्रेस अब खुद को फंसा हुआ पाती है। एक ओर किसी भी तरह की हिन्दू ‘भावना’ को अपील करने पर वह भाजपा की ‘बी टीम’ लगेगी। दूसरी तरफ, छोटी, मुस्लिम केंद्रित पार्टियों से गठजोड़ कम अवधि के लिए सुधार की कोशिश लगता है, जिसका चुनावी लाभ अनिश्चित है।
मसलन असम की नागरिकता संशोधन अधिनियम के बाद की राजनीति में, कांग्रेस-एआईयूडीएफ गठबंधन लोअर असम की मुस्लिम बहुल सीटें तो पा सकता है, लेकिन इससे बाकी के राज्य में विपरीत ध्रुवीकरण शुुरू हो जाएगा। स्पष्ट रूप से विभाजित बंगाल में ISF के साथ गठजोड़ न सिर्फ विचारधारा के स्तर पर असंगत है, बल्कि यह मुस्लिम वोट को ममता बनर्जी व लेफ्ट-कांग्रेस-आईएसएफ गठबंधन में बांट देगा। इससे भाजपा का ही काम आसान होगा।
विडंबना यह है कि केरल में आईयूएमएल से साझेदारी के लिए कांग्रेस पर हमला करने वाले लेफ्ट को, बंगाल में इस्लामिक धर्म गुरु के साथ गठबंधन पर जोर देने में ज्यादा पछतावा नहीं है। धर्मनिरपेक्षता में अंतर्निहित यही पाखंड इसे नैतिक व राजनीतिक रूप से कमजोर कर रहा है। दु:खद यह है कि इसका खामियाजा अल्पसंख्यक भुगत रहे हैं। इन्हें हिन्दुत्व ब्रिगेड द्वारा अलग-थलग कर दिया गया है, उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाए जाते हैं।
धर्मनिरपेक्ष राजनीति पर चिंतित कई मुस्लिम युवा असद्दुदीन ओवैसी जैसों को संभावित ‘रक्षक’ मानने लगे हैं। गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों में ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने गोधरा में आठ में सात सीटें जीतीं और मोडासा शहर में मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी है। इनमें से ज्यादातर सीटें पहले कांग्रेस ने जीती थीं। साफ है कि मुस्लिम वोटर भी विकल्पों की तलाश में हैं, जो धर्मनिरपेक्षता की घिसी-पिटी और बनावटी परिभाषाओं के परे जाते हों।
राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)