चल उड़ जा रे पंछी…

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कहावत है- जान है तो जहान है। कहावत बनाने वाले ने तो यह कहना चाहा होगा कि जब तक आप जिंदा हैं तब तक ही आपके लिए जहान है, यह दुनिया है। उसके बाद दुनिया तो रहेगी लेकिन आप इसको भोगने के लिए या कुछ भी अच्छा-बुरा करने के लिए नहीं रहोगे। इसलिए जो करणीय है कर लो इसीलिए यह भी कहा गया है- काल करे सो आज कर क्योंकि कभी भी प्रलय हो सकती है। अन्यथा भी, आप यहाँ अनंत काल का पट्टा लिखवाकर नहीं लाए हैं इसीकी पुष्टि करती है। यह कहावत- आप मरे, जग परलय मोदी जी ने कोरोना के संकट में बहुत सोच-समझकर इस कहावत को सार्थकता और विस्तार दिया था- जान भी, जहान भी मतलब हम खुद भी बचेंगे और दुनिया को भी बचाएंगे वाह ! लेकिन कुछ लोग इस सद्वाक्य के साथ भी अपने हिसाब से छेड़खानी कर लेते हैं और कहते हैं- पहले तो हम मरेंगे नहीं यदि दुनिया के सौभाग्य से ऐसा हो भी गया तो या तो दुनिया का सब कुछ समेटकर अपने साथ ले जाएंगे या इस दुनिया को आग लगाकर जाएंगे जैसे कि मेरी न हो सकी तो किसी और की भी नहीं होने दूंगा और कुछ नहीं तो एसिड की फेंक या फिंकवा दूंगा। फिर एक कहावत है- पर उपदेस कुसल बहुतेरे जे आचरहिं ते नर न घनेरे। उपदेश देने वाले तो बहुत हैं लेकिन आचरण करने वाले बिरले ही मिलते हैं।

क्या बताएं, लाख उपदेश झाड़ने के बावजूद हम भी जहान से पहले अपनी जान की खैर मनाते हैं। हाँ, हम अपनी जान के लिए इस जहान खतरे में नहीं डालना चाहते डालना भी चाहें तो हमारी इतनी क्षमता नहीं फिर भी आज जब तोताराम आया तो हमने कहा- तोताराम, कृपा करके जब तक कोरोना समाप्त न हो जाए। तब तक तू यहाँ मत आया कर बोला- यदि भूल से कुछ हो गए हों तो, अपने सत्कर्मों पर और ईश्वर पर विश्वास कर मौत का एक दिन मुअय्यन है। तुझे रात भर नींद क्यों नहीं आती अमरीका में कोरोना के सबसे ज्यादा मामले हैं लेकिन क्या कभी ट्रंप के चेहरे पर चिंता की लकीर देखी ? मोदी जी भी कभी-कभी उलटे मन से ही सही, गमछा नाक पर कर लेते हैं। लेकिन ट्रंप तो सुनहले अयालों वाला बब्बर शेर है। देखा कभी मास्क या गमछे में बन्दे का फोटो ? हमने कहा- ट्रंप और मोदी जी दोनों ही दुनिया और लोकतंत्र के स्वघोषित महाबली हैं उनकी बात तो कभी भी की जा सकती है। जहाँ तक मौत की बात है तो हम भी जानते हैं। कि जब-जब, जो-जो होना होगा; वह तो होकर ही रहेगा। जब राजा परीक्षित को तक्षक द्वारा डसा जाना मुअय्यन था। तो फल में से कीड़ा बन कर निकल आया तक्षक और कर गया।

‘संकल्प से सिद्धि’ लेकिन तेरी राहुल और राजनाथ सिंह की तरह, कुछ काम न करते हुए खाली-पीली ट्विटरिया शायराना मुकाबला करने की ऐसी क्या मज़बूरी है। जो ग़ालिब का जुलूस निकाल रहा है। नेताओं को तो किसी तरह मज़े लेने हैं- कभी साहित्य के, कभी शायरी के, कभी अनुप्रास अलंकार के परसों देखा नहीं, जयपुर में अमित शाह द्वारा दूसरों की विधायक-बीवियों को भगाने के लिए छोड़े गए शोहदों की नज़रों से बचाने के लिए अशोक जी एक पाँच सितारा अन्तःपुर में विधायकों सहित क्वेरंटाइन में हैं। तो उन्हें भी मनोरंजन के लिए संपत सरल को बुलाना पड़ा किसी भी हालत में सभी को मनोरंजन की ज़रूरत तो पड़ती ही है हर हालत में जान और जहान दोनों ज़रूरी हैं। नेताओं की जान सिंहासन में है। इसलिए वे हर समय सिंह की तरह दहाड़ते रहते हैं, भले ही पीछे से तरल मल ही प्रवाहित हो रहा हो हमारी तो जान और जहान दोनों ही पेंशन में हैं। और पेंशन तब तक है। जब तक जान है। और जान तब तक है। जब तक कोरोना से बचे हुए हैं। और कोरोना से तभी बचे रह सकते हैं। जब तक लोगों विशेषकर काले लोगों के संपर्क में न आएँ और भगवान् की दया से तेरा रंग कैसा है, तू और हम ही क्या, हर आँख वाला बिना बताए भी जानता ही है। बोला- तुझे पता है तू क्या बोल रहा है ?

अरे, यह रंगभेद और नस्ल भेद है। दुनिया को जाने कब से बाँट-बाँट कर दुखी करने वाली कुंठा आज अमरीका और योरप के नस्ल भेद और रंग भेद करने वाले मामले ने भले लोगों को चिंतित कर रखा है। मानवतावादी तो इसे लेकर हमेशा से ही दुखी रहे हैं। हमने कहा- हमारे यहाँ जो घृणा धर्म और जाति को लेकर है, वह नस्ल भेद और रंग- भेद से किसी तरह से भी कम नहीं है। रंग भेद के मामले में भी प्रवासी भारतीयों विशेषकर अमरीका और योरप में रहने वाले भारतीय कम कुंठित नहीं हैं। वे गोरों के सामने अपने गेहुंए रंग के कारण हीनभावनाग्रस्त रहते हैं। तो अफ्रीका मूल के कालों के सामने वे श्रेष्ठता ग्रंथि से पीड़ित हो जाते हैं। मतलब ‘कुंठा तू न गई मेरे मन से’ पशुओं और पक्षियों के बीच चमगादड़ वैसे हमारे यहाँ भी राक्षसों को काला और विशाल दिखाया जाता है और देवताओं को गोरा और सुन्दर बेचारे कृष्ण तो बचपन से ही अपने काले रंग को लेकर कुंठित रहा करते थे। वह गाना नहीं सुना ? राधा क्यों गोरी, मैं क्यूँ काला ? अब बेचारी यशोदा मैय्या भी क्या उत्तर दे ? बहुत उबटन लगाती होगी लेकिन ओरोजिनल और असली काला रंग कितना भी सुधरे लेकिन ट्रंप जैसा तो नहीं हो सकता बोला- लेकिन हमारे यहाँ तो इसे लेकर कोई कुंठा नहीं है। हमारे तो सभी बड़े-बड़े विभागों को सँभालने वाले विष्णु, शिव, राम, कृष्ण आदि सभी काले ही हैं।

जिनके भारत के पीछे भारत नाम पड़ा वे भी काले, कृष्ण के प्रिय मित्र अर्जुन और प्रिय सखी द्रौपदी भी कृष्णा दुर्गा के दो भैरों में से एक काला शिव को भी अपने चरणों में गिरने के लिए मज़बूर करने वाली काली तो खैर, काली है। ही हमने कहा- एक कारण और है कि तू गंजा भी है। कहते हैं गंजे लोगों में कोरोना के प्रति रोधक क्षमता कम होती है। वैसे उम्र के हिसाब से भी तू हमारी तरह अस्सी के पेटे में है। इसलिए हर तरह से कोरोना बम ही है। बोला- संबित पात्रा युवा भी हैं , गोरे भी हैं और सिर पर काले घने बाल भी हैं , उन्हें कैसे हो गया कोरोना ? राजनाथ जी, अमित जी, अनुपम खेर जी, आडवानी जी आदि खल्वाट वाले हैं फिर भी कोरोना को धता बताए हुए हैं। हमने कहा- हो गया तो ठीक भी कितना जल्दी हो गया हम नहीं झेल पाएंगे। और जहां तक कोरोना काल में सरकार की जनता के प्रति जिम्मेदारी की बात है। तो यह नाटक एकदम झूठा और नकली है। अपनी कमियाँ छुपाने, विरोधियों को चुप कराने और बीस लाख करोड़ को निबटाने के लिए है। देखा नहीं, कैसे कोरोना के नाम पर सी ए ए विरोधियों को बर्फ में लगा दिया।

लोग कोरोना संक्रमितों के आँकड़े पढ़ते रहते हैं, अपने आड़े वक्त के लिए बचाए गए। पैसे निबटते और बैंक में जमा थोड़े से रुपयों पर कम होती ब्याज दर का हिसाब लगाते हैं। और उसी समय सरकार चुपके से डीजल और पेट्रोल के दाम बढ़ा देती है। ऐसे में सरकार के चहेते मजदूरों के अनाज में कम तोली (अंडर वेमेंट ) करते रहते हैं, घटिया वेंटिलेटर पेल देते हैं। जहाँ तक इलाज़ की बात है। तो अस्पताल मरीजों से बेरहमी से पैसे वसूले जा रहे हैं। लोगों के पास खाने को पैसे नहीं हैं। तो कोरोना का लाखों रुपए वाला इलाज कहाँ से करवाएंगे ? तू कोई भी तर्क दे लेकिन कृपा करके तू कल से यहाँ आना बंद कर दे बोला- तुलसी बाबा सच कह गए हैं- धीरज धरम मित्र अरु नारी आपत काल परखिए चारी चलो अच्छा हुआ, तेरी दोस्ती, सरकार का धरम, मजदूरों के बल पर करोड़ों कमाकर भी महिने-बीस दिन सहारा न देने वाले मालिकों का धीरज सबकी परीक्षा तो हो गई सोचता हूँ। अब सब छोड़-छाड़कर फकीर की तरह अपना झोला उठाकर निकल ही जाऊँ तोताराम गुनगुनाता हुआ उठा गया- ‘चल उड़ जा रे पंछी, ये देश हुआ बेगाना’।

रमेश जोशी
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

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