राजद्रोह कानून से निजात ही बेहतर

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राजद्रोह कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हाल में फैसला दिया है कि सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं है। आलोचना से हिंसा फैल जाए या हिंसा फैलाने की कोशिश हो, तभी राजद्रोह का मामला बनेगा। एक अन्य मामले में राजद्रोह से संबंधित कानून के परीक्षण का भी सुप्रीम कोर्ट ने फैसला लिया है। आने वाले दिनों में इसे लेकर बड़ी बहस देखने को मिल सकती है। वैसे आजादी के बाद संविधान सभा की बैठक में सबसे पहले राजद्रोह को संविधान से बाहर करने को लेकर ही बहस हुई थी। राजद्रोह अपराध है लेकिन इस शब्द को संविधान में जगह नहीं दी गई।

आईपीसी की धारा-124 ए में राजद्रोह को परिभाषित किया गया है। इसके मुताबिक कोई शख्स बोलकर या लिखकर या किसी संकेत से या फिर अन्य तरीके से कानून के तहत बनी सरकार के खिलाफ विद्रोह या असंतोष जाहिर करता है या सरकार की अवहेलना या अवमानना करता है या ऐसी कोशिश करता है तो दोषी पाए जाने पर उसे उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। भारतीय दंड संहिता जब बनाई गई थी, तब उसके ड्राफ्ट में राजद्रोह शब्द था। लेकिन 1860 में जब आईपीसी लागू हुआ तो यह शब्द ड्रॉप कर दिया गया। बाद में ब्रिटिश राज में 1870 में इसे लाया गया। ब्रिटिश सरकार ने अपने शासन काल में भारतीयों की अभिव्यक्ति और असहमति को दबाने के लिए यह प्रावधान किया था। आजादी के बाद आईपीसी की धारा-124 ए (राजद्रोह कानून) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई, तब सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह से संबंधित वाद में 1962 में राजद्रोह कानून को बरकरार रखा।

आजादी से पहले अंग्रेजी हुकूमत का मकसद था कि असहमति रखने वाले लोगों का कानून के जरिये दमन किया जाए। इसके कई उदाहरण मिलते हैं। बाल गंगाधर तिलक ने मराठा योद्धा शिवाजी का उदाहरण देकर अंग्रेजी शासन को हटाने की जरूरत बताते हुए लेख लिखा था और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला। इसी तरह राम चंद्र नारायण, ऐनी बेसेंट, मौलाना आजाद, महात्मा गांधी आदि स्वतंत्रता सेनानियों पर राजद्रोह का केस चला था।

आजादी के बाद संविधान सभा की बैठक में संविधान के ड्राफ्ट से राजद्रोह शब्द को हटाने की जोरदार वकालत केएम मुंशी और कुछ अन्य सदस्यों ने की थी। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह बताते हैं कि एक दिसंबर 1948 को संविधान सभा में मौलिक अधिकारों, विचार अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर वाजिब रोक को लेकर बहस चल रही थी। वाजिब रोक में मानहानि, अदालत की अवमानना, देश की सुरक्षा से संबंधित मामलों और राजद्रोह को भी रखा गया था। इस अनुच्छेद से राजद्रोह को हटाने के लिए शिक्षाविद केएम मुंशी ने संशोधन पेश किया। उन्होंने कहा कि 150 साल पहले ब्रिटेन में रैली करना भी राजद्रोह कहा जाता था। अब हम स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश हैं। सरकार को आलोचना का स्वागत करना चाहिए और सुरक्षा, पब्लिक ऑर्डर को खतरा वाले बयान का दायरा तय होना चाहिए। सेठ गोविंद दास ने भी मुंशी का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने राजद्रोह कानून का इस्तेमाल हमारे स्वत्रंता सेनानियों को प्रताड़ित करने के लिए किया। भूपेंद्र सिंह मान सहित अन्य सदस्यों ने भी मुंशी का साथ दिया और यह तय हुआ कि संविधान में राजद्रोह शब्द को जगह नहीं मिलेगी।

विचार अभिव्यक्ति की आजादी हमें संविधान के अनुच्छेद-19 (1) (ए) के तहत मिली हुई है और उसके अपवाद अनुच्छेद-19 (2) में बताए गए हैं। इनमें देश की सुरक्षा और संप्रभुता से जुड़े मामलों, नैतिकता, मानहानि, अदालत की अवमानना और पब्लिक ऑर्डर को रखा गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपवाद में पब्लिक ऑर्डर को जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में जोड़ा गया था। तब संशोधन प्रस्ताव के दौरान नेहरू ने संसद में कहा था कि जहां तक मेरा सवाल है तो मैं मानता हूं कि 124 ए (राजद्रोह) बेहद आपत्तिजनक है। आगे चलकर इससे छुटकारा मिलेगा तो बेहतर है।

अब सुप्रीम कोर्ट ने 3 जून को दिए एक अहम फैसले में कहा है कि सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1962 के केदारनाथ से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था, उसके तहत हर पत्रकार संरक्षण का हकदार है। ऐसे में केदारनाथ जजमेंट को देखने की जरूरत है। 1962 में दिए उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हर नागरिक को सरकार के कामकाज पर कॉमेंट करने और उसकी आलोचना करने का अधिकार है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ किया था कि आलोचना ऐसी हो, जिसमें शांति व्यवस्था खराब करने या हिंसा फैलाने की कोशिश न हो। अगर कोई ऐसा बयान देता है, जिसमें हिंसा फैलाने और पब्लिक ऑर्डर खराब करने की प्रवृत्ति या कोशिश हो तो फिर राजद्रोह का मामला बनेगा। इसी संदर्भ में 1995 का बलवंत सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब केस भी अहम है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि खालिस्तान जिंदाबाद स्लोगन अपने आप में राजद्रोह नहीं है। कैजुअल तरीके से कोई नारेबाजी करता है तो वह राजद्रोह नहीं माना जाएगा।

हाल में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें सरकार ने लोगों के खिलाफ राजद्रोह का केस दर्ज किया है। आरोप लगाया गया कि राजद्रोह केस का गलत इस्तेमाल हुआ है। कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने दखल भी दिया। सुप्रीम कोर्ट ने दो तेलुगू चैनलों की ओर से दाखिल याचिका में उनके खिलाफ राजद्रोह का केस रद्द करने की गुहार पर सुनवाई के दौरान कहा था कि वह खुद राजद्रोह कानून की व्याख्या करेगा। शीर्ष अदालत ने कहा कि मीडिया का सूचना देने और खबर देने का जो अधिकार है, उसके संदर्भ में राजद्रोह कानून की व्याख्या की जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब सुप्रीम कोर्ट इस कानून का नए सिरे से परीक्षण कर व्याख्या करेगा, तब इस बहस पर विराम लग जाएगा।

राजेश चौधरी
(लेखक कानूनविद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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