यह सत्तर के दशक की बात है, वसंतदादा पाटिल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और मैं उनके मंत्रिमंडल में गृह मंत्री था। एक दिन दादा ने प्रमुख आईपीएस अधिकारियों की एक आवश्यक बैठक मुख्यमंत्री निवास पर बुलाई। गृहमंत्री होने के नाते मैंने वहां उपस्थित रहना अपना कर्तव्य समझा। मैं 9:45 बजे वहां पहुंच गया क्योंकि मीटिंग दस बजे से प्रारंभ होनी थी। दस बज गए, दादा मीटिंग में नहीं पहुंचे। समय बीत रहा था। मैं उनके कमरे में उनको मीटिंग के बारे में याद दिलाने पहुंचा। उनके सामने कुछ साधारण किसान आगंतुक बैठे थे। दादा ने मेरा परिचय कराया, ‘यह हमारे मित्र हैं। हम दोनों स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक साथ जेल में थे। इनका पुत्र सशस्त्र बल में है। यह उसका तबादला येलो गेट थाने में चाहते हैं।’ आगंतुक की धृष्टता से मैं थोड़ा चिढ़ गया। पहले तो यह कि उसने अपनी निजी समस्या के लिए मुख्यमंत्री को 15 मिनट लेट किया था और उसके पुत्र का स्थानांतरण कोलाबा के येलोगेट थाने में करना साधारण मांग नहीं थी। सशस्त्र बलों की तैनाती मंत्रियों और वीआईपी व्यतियों के साथ होती है। वहां पर कमाई का कोई स्रोत नहीं होता। येलो गेट थाना बंदरगाह के समीप था। वहां की तैनाती काफी आकर्षक मानी जाती थी और काफी महत्तवपूर्ण भी थी। मैंने कहा, ‘दादा, जो लोग धन कमाना चाहते हैं, वे येलो गेट थाने के लिए स्थानांतरण चाहते हैं।’
उन्होंने पूछा, ‘या ऐसा है?’ ‘हां, ऐसा ही है।’ मैंने उत्तर दिया। ‘अच्छा, तो इसका स्थानांतरण दो वर्ष के लिए कर दो। उसको दो बहनों की शादी करनी है।’ दादा ने बगैर उत्तोजित हुए यह बात कहकर मेरी बोलती बंद कर दी। लाल जी, इनकी बात मान लेते है। अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे पहले प्रधानमंत्री थे, जिनका कांग्रेस से कोई संबंध नहीं रहा। उनके नेतृत्व वाली सरकार में मैं विपक्ष का नेता था। वह गलत और सही के बीच विभाजन करने की पैनी दृष्टि और प्रसन्नचित्ता होकर हास्य-व्यंग्य करने की क्षमता वाले व्यति थे। कई ऐसे महत्वपूर्ण पद होते हैं जो प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडल के वरिष्ठ मंत्री और विपक्ष के नेता की सहमति से भरे जाते हैं। इस प्रकार की मीटिंगों में अटल बिहारी वाजपेयी, जसवंत सिंह और लालकृष्ण आडवाणी के साथ भागीदार होना काफी प्रसन्नता का विषय रहता था। अटल जी इस तरह की मीटिंगों में सीधे-सीधे मेरिट के आधार पर निर्णय लेते थे। इस तरह की विशेष मीटिंगें प्रारंभ होते समय प्रधानमंत्री कुछ समय के लिए अपनी आंखें बंद कर बैठे रहते और हम लोगों में से कोई भी कुछ समय तक कुछ नहीं बोलता। थोड़ी देर बाद अटल जी धीरे-धीरे अपनी आंखें खोलते और फिर एक विचारशील मुद्रा में सब पर नजर डालते हुए पूछते, ‘आज की मीटिंग का प्रयोजन क्या है?’ जसवंत सिंह बताना शुरू करते कि अमुक-अमुक पद के लिए उम्मीदवारों का चुनाव आज का अजेंडा है।
अटल जी हम सबके ऊपर एक गहरी दृष्टि डालते हुए पूछते, ‘आपके मन में कोई है?’ यदि सभी लोग सहमत हो जाते, तो मीटिंग तुरंत समाप्त हो जाती। यदि कोई असहमति होती, तो प्रधानमंत्री उसके गुण-दोष पर विवेचना की अनुमति देते। इसके बाद चाय पीने के लिए छुट्टी हो जाती। वापस आने के बाद वह कुछ देर हम लोगों की बहस सुनते और फिर अपना निर्णय सुना देते। मुझे एक मीटिंग की याद है जिसमें एक पद के लिए एक व्यतिके नाम को लेकर आडवाणी जी और मेरे बीच असहमति थी। हम दोनों के विचार थोड़े समय सुनने के बाद अटल जी ने अपनी बहुपरिचित स्टाइल में हस्तक्षेप किया। आडवाणी जी की तरफ मुड़ते हुए उन्होंने हमारी तरफ इशारा किया और कहा, ‘लालजी, हम लोग सत्ता में अभी आए हैं। इनको सत्ता का हमसे ज्यादा तजुर्बा है, इनकी बात मान लेते हैं।’ वे जब भी घरेलू राजनीति की उठापटक से दूर होते, तो बहुत सहज रहते थे। मुझे एक बार की बात याद है। हम उनके नेतृत्व वाले एक प्रतिनिधिमंडल में यूएनओ गए थे। वह अपने साथियों के साथ अनेक किस्सा-कहानी सुनाते और सभी का मनोरंजन करते। इसीलिए पार्टी लाइन और वैचारिक सीमाओं से बाहर सभी के बीच वह लोकप्रिय थे।
संजय दत्ता के लिए आए थे दिलीप: दिलीप कुमार ने जब अपनी आत्मकथा लिखी तो उसमें मेरे नाम का उल्लेख किया। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन की एक समस्या को हल करने में मेरी और रजनी पटेल की मध्यस्थता का उल्लेख किया। वास्तव में जब उनको आसमा रहमान से दूसरी शादी करनी थी, तब उनकी पत्नी सायरा बानो और दिलीप कुमार दोनों ने मुझसे मध्यस्थता की भूमिका निभाने को कहा और मुझे प्रसन्नता है कि आज भी वह सब खुश हैं। 1993 में जब मैं महाराष्ट्र सरकार में था, उस समय संजय दत्ता की गिरतारी के संबंध में वह मेरे पास आए थे, परंतु यह बहुत ही कठिन परिस्थिति थी। संजय दत्ता की गिरतारी मुंबई बम विस्फोटों के संबंध में हुई थी और संजय दत्ता के पिता सुनील दत्ता ने उनको मेरे पास भेजकर कुछ उदारता की प्रार्थना की थी। परंतु मामला इतना संगीन था कि मैं कुछ भी सहायता करवाने में असमर्थ था। युवा अभिनेता के खिलाफ इतने साक्ष्य मौजूद थे कि मुझे उनकी अपील को खारिज ही करना था। उनकी पत्नी सायरा बानो और मेरे परिवार के रिश्ते आज भी अच्छे हैं। 93 वर्ष की उम्र में जब वह काफी बीमार थे तो मैं उनको देखने गया, लेकिन वह मुझे पहचान नहीं सके।
शरद पवार
(शरद पवार की पुस्तक, ‘अपनी शर्तों पर’ प्रकाशक राजकमल से साभार)