ईश्वर से कर्म की ही शक्ति मांगे

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हम सोचते हैं कि जो भी होता है, भगवान की मर्जी से होता है। ठीक भी है। कौन करेगा, वे ही तो करेंगे। इसलिए हम रोज उनसे कहते हैं, हे भगवान मेरी समस्या ठीक कर दो। क्या भगवान हमारी समस्या ठीक कर सकते हैं? मान लो हमारे जीवन की समस्या है कि मुझे यह टेबल उठानी है। तो क्या मैं परमात्मा से कहूं कि हे परमात्मा, टेबल उठा दो। उठेगी टेबल? नहीं। हम तो रोज उनसे यही सब कहते हैं, तबीयत ठीक कर दो, बच्चे को पास करा दो, बच्ची की शादी करा दो, मेरा ट्रांसफर रुकवा दो। हमें यह पता है कि भगवान से हमें क्या मिल सकता है और क्या नहीं। परमात्मा हमारे कर्म नहीं करेंगे। वे हमें सही कर्म करने की शक्ति देंगे, ज्ञान देंगे। जैसे एक बच्चे को होमवर्क करना है, तो ममी-पापा उसका होमवर्क नहीं कर सकते। लेकिन उसको होमवर्क करना सिखा सकते हैं। तो जब भी हम परमात्मा को याद करें या पूजा करें तो ये नहीं कहें कि मेरा यह काम कर दो, बल्कि कहें कि मुझे यह काम करने की शक्ति दें। अभी हम रोज उनसे कहते हैं कि मेरा ये काम कर दो। पंद्रह-बीस दिन हो गए, टेबल ही नहीं उठी। फिर कोई आकर मुझे कहता है, आप इनसे नहीं, इनसे मांगो। तो हम इनको याद करना बंद कर देते हैं, किसी और की पूजा शुरू कर देते हैं। अगर भगवान में हमारा विश्वास है, अपने माता-पिता में विश्वास हो तो हम परेशान नहीं होंगे।

जैसा कर्म होता है, वैसा ही फल मिलता है। अगर ये स्पष्ट हो गया तो कभी भी हमारी ऊंगली न ऊपर की ओर जाएगी और न किसी और की ओर। अगर मैं अच्छा व्यवहार कर रही हूं, फिर भी कोई मेरे साथ गलत कर रहा है, तो उसका कारण कौन है? अगर कोई मुझे धोखा दे रहा है, तो कारण कौन? मेरी सेहत ऊपर-नीचे हो रही है तो इसका कारण कौन? मेरा मन खुश नहीं है तो इसका कारण कौन है? इससे भी महत्वपूर्ण है कि इसका निवारण कौन करेगा। हमें जीवन में इस लाइन को पकड़कर रखना है, जैसा कर्म वैसा फल। जो कुछ हम सोचते हैं, बोलते हैं, करते हैं, वो है हमारा कर्म। जो हमारे साथ होता है, जीवन में जो परिस्थितियां आती हैं, लोग हमारे साथ जो व्यवहार करते हैं, वो है हमारा भाग्य। मैं इनसे कैसे बात करूं, ये है हमारा कर्म। ये हमसे कैसे बात करें, वो है मेरा भाग्य। दोनों के बीच में क्या संबंध है? जैसा कर्म होता है, वैसा भाग्य बनता है। हम जो कर्म करते हैं वो हमें दिखाई नहीं देता है, लेकिन भाग्य दिखाई देता है। जो हमारे साथ हो रहा है वह दिखाई देता है। उदाहरण के लिए मेरे सामने घड़ी है। मैंने ये घड़ी उठाकर आपकी तरफ फेंकी। ये है मेरा कर्म। अब जो मैंने दिया, वापस भी वही आने वाला है। लेकिन मुझे सिर्फ यह दिखाई देता है कि वहां से घड़ी आ रही है। हम चाहते हैं फूल, लेकिन आ रही है घड़ी। इसी तरह अगर कोई सबके सामने मुझे बहुत कुछ बुरा कह दे। मैं कहती हूं इन्होंने मेरी बेइज्जती कर दी।

मैं बिना उन्हें समझे नाराज हो जाती हूं। या फिर मान लें कि मेरे हाथ में एक काले रंग की गेंद है। मैंने सामने दीवार पर फेंकी, जो वापिस आ रही है। तो वैसे ही कोई मेरे पास काले रंग की बॉल भेज रहा है, यानी मेरी बेइज्जती कर रहा है। वो काले रंग की गेंद सामने से आ रही है, वो घड़ी सामने से आ रही है, वो बेइज्जती सामने से आ रही है, वो धोखा सामने से आ रहा है, तो हम क्या करें। हम उनसे कह सकते हैं कृपया ऐसा न करें। हमारे कहने से वे रुक सकते हैं। लेकिन हम नाराज हो जाएंगे, उदास, परेशान हो जाएंगे, रोने लग जाएंगे। वहां से काली गेंद आ रही थी, हमने भी वापस काली गेंद फेंक दी। इस तरह से ये युग कलियुग बन गया। अब हमें सतयुग बनाना है। काली गेंद आ रही थी, हमने भी काली भेजी, कलियुग बन गया। इस क्षण मेरे पास विकल्प है कि मैं उनको समझकर, उनकी कमजोरी और दर्द जानकर, वो जैसे हैं, उनको वैसे स्वीकार करूं। इससे मेरा मन शांत हो जाएगा। मेरे मन में यह सवाल नहीं उठेगा कि मेरे साथ ही बार-बार ऐसा क्यों करते हैं। वो ऐसा व्यवहार करेंगे, तो क्या हम उनसे प्यार से बात कर सकते हैं? अगर हम उनसे प्यार से बात करेंगे तो फायदा किस-किस का होगा? पहले तो मेरा अपना मन ठीक रहेगा, दूसरा मेरी सेहत ठीक रहेगी, उस ऊर्जा का प्रभाव हमारे मन पर नहीं पड़ेगा, चौथा उनकी भी सेहत ठीक रहेगी। सबका लाभ होगा। इसी से तो सतयुग आएगा।

बीके शिवानी
(लेखिका ब्रह्मकुमारी हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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