अमेरिकी घटनाएं भारत के लिए चेतावनी

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ज्यादातर भारतीयों के लिए वॉशिंगटन डीसी में ट्रम्प समर्थकों की उग्र भीड़ द्वारा कैपिटल हिल की घेराबंदी की खबर और कैपिटल से उठते धुएं, छिपते हुए प्रतिनिधि सदन के सदस्य और इमारत को नुकसान पहुंचाते हथियारबंद बदमाशों की तस्वीरें चौंकाने वाली थीं। लेकिन कुछ शाडफ़्रॉएड (जर्मन शब्द, अर्थ: दूसरे के दर्द में आनंद पाने वाले) भी थे, जो लोकतंत्र पर अमेरिका के भाषण सुनकर थक चुके थे। कुछ ने घटना को अमेरिकी ‘अपवादवाद’ का अंत माना।

लेकिन भारतीय सरकार ने तेजी से घटना की निंदा की और प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया कि वे ‘वॉशिंगटन डीसी में दंगे और हिंसा की खबर से व्यथित हैं। शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण जारी रहना चाहिए।लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गैरकानूनी प्रदर्शनों से मिटने नहीं दे सकते।’ लेकिन ये शब्द उन भारतीयों की बढ़ती चिंता शांत नहीं कर सकते, जो मानते हैं कि हमारे देश भी इसी राह पर बढ़ रहा है।

मौजूदा सरकार के 2014 में और फिर 2019 में दोबारा आने के बाद से भारत ने लगातार ये बदलाव होते देखें हैं: एक बढ़ते उदारवादी और संवैधानिक लोकतंत्र से ध्रुवीकृत और बंटे हुए समाज से अभिलक्षित गैर-उदारवादी सरकार में बदलाव, शासन के संस्थानों पर व्यवस्थित हमला, संसद का रबर-स्टाम्प बनकर रह जाना, विविधतापूर्ण समुदायों को साथ रखने वाले हमारे संवैधानिक मूल्यों में गिरावट और उग्र राष्ट्रवादी ताकतों का उदय, जिन्होंने अपने दंभ में खुद को भारतीय पहचान को परिभाषित करने का अधिकार दे दिया है। कई तरह से, हमारे देश के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को परिभाषित करने वाली इन प्रवृत्तियों में अमेरिका में घटी घटनाओं से कुछ समानताएं हैं:

अमेरिका में जिस परिसंघ को गृह युद्ध के बाद खत्म मान लिया गया था, ऐसा लगता है कि उसने ऊर्जावान वापसी की है। भारत में आजादी के समय और संविधान के मूल्यों के जरिए जिस हिंदुत्व आंदोलन को नकार दिया गया था, पिछले एक दशक में उसका फिर से अचानक उदय हुआ है। दोनों देशों में ऐसे विचार जिनका राष्ट्रीय सर्वसम्मति से खंडन कर दिया गया था, वे खुद को फिर थोपकर सर्वसम्मति को नष्ट कर रहे हैं।
राजनीतिक नेतृत्व के संदर्भ में दोनों देशों में ‘स्ट्रॉन्गैन’ राजनीति का उदय हुआ है, जहां नेता अपने प्रशंसकों की खुशामद में समर्थन तलाशते हैं और खुद को राष्ट्रीय हित का मुख्य निर्धारक बताते हैं।

ऐसे संस्थानों को खोखला किया जा रहा है, जिनसे सरकार द्वारा जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल या दखल की जांच करने और संतुलन बनाने की उम्मीद होती है। अंतत: अमेरिकी संस्थानों, खासतौर पर न्यायपालिका और स्वतंत्र प्रेस ने साबित किया कि उन्होंने समझौता नहीं किया। भारत में अभी तो ऐसा दावा करना मुश्किल है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निशाना बनाने के लिए ट्रोलिंग और फेक न्यूज फैलाकर सोशल मीडिया के बेलगाम इस्तेमाल ने दोनों देशों की राजनीति को बदला है। अमेरिका के राष्ट्रपति को बैन करने वाली सोशल मीडिया कंपनियां, भारत में नफरत व झूठ फैलाने वाले छोटे-मोटे पैरोकारों के खिलाफ भी कदम उठाने में झिझकती है। ट्रम्पवादियों और हिन्दुत्व आंदोलन, दोनों के उदय में बहुसंख्यकवाद निहित रहा है।

वॉशिंगटन के दंगाई ज्यादातर श्वेत और पुरुष थे। जैसे ट्रम्पवादियों ने राष्ट्रीय गर्व और नस्लीय श्रेष्ठता को अंधभक्ति बना दिया, उसी तरह भारत में हिन्दुत्व आंदोलन ने अपने शब्दों में राष्ट्रवाद को परिभाषित कर दिया। हमारे दो समाजों के विभाजन में दोनों देशों के प्रभुत्व वाले राजनीतिक नेतृत्व तेजी लाए हैं। ट्रम्प के मुख्य नारे ‘अमेरिका फर्स्ट’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के बदले में मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘अच्छे दिन’ तथा ‘नया भारत’ जैसे वादे थे। जहां ट्रम्प ने वाशिंगटन के संभ्रांतों से मुक्ति दिलाने और ‘कीचड़ को बहाने’ का वादा किया, तो हमारी सरकार ने अपने विरोधियों को ‘लुटियन संभ्रांत’ और ‘खान मार्केट गैंग’ जैसे लेवल दिए।

दोनों देशों में संस्थानों को कमजोर किया गया, लेकिन हमारे संस्थानों पर सीधा हमला हुआ, जिसमें रिजर्व बैंक जैसे वित्तीय नियामक, जांच एजेसियां, चुनाव आयोग, केंद्रीय सूचना आयोग जैसे दायित्व वाले संस्थान, न्यायपालिका और यहां तक कि स्वतंत्र प्रेस भी शामिल हैं। नतीजतन उस उदारवादी, सहिष्णु और लोकतांत्रिक चरित्र में गिरावट आई, जिस पर दोनों देशों को गर्व रहा है। भारत में यह हमारा काम है कि देश उस चरित्र को फिर बनाए, जिसने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को जीवंत किया और जो हमारे समावेशी राष्ट्रवाद का गुण रहा है। कैपिटल हिल के घटनाक्रम को हम अपने लिए चेतावनी मानें कि अगर हम ऐसा करने में असफल रहे तो हम भी इस राह पर जा सकते हैं।

शशि थरूर
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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