समझदारों को समझा नहीं सकते !

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कई बार जब मैं अपने आस-पास के लोगों का बौद्धिक स्तर देखता हूं तो बहुत आश्चर्य होता है। तब याद आता है कि जब हम बचपन में जो कुछ पढ़ते व सीखते थे उसका या मतलब होता था? आजकल बहुत सर्दी पड़ रही है। मैं साल के पहले मंगलवार को हनुमानजी की पूजा करने मंदिर गया। मंदिर के सामने काफी बड़ा पत्थर लगा हुआ स्थान है जहां की सफाई या पोछे के लिए एक व्यक्ति को रखा गया है। वहां कारगिल युद्ध में शहीद हुए अनुज नायर की याद में हमने एक पत्थर भी लगाया है। जब मैं पूजा करके बाहर निकलता हूं तो उस पत्थर के सामने अगरबत्ती जलाकर फूल चढ़ाते हुए व उनके दिवंगत पिता को याद करता हूं। उनकी आत्मा की शांति व स्वर्ग में उनके निवास की प्रार्थना करता हूं। जब पूजा करके निकला तो देखा कि काफी तेज ठंडी हवा चलने के बावजूद वहां सफाई करने वाले लड़के ने सूखे चबूतरे पर गीला पोछा लगा दिया था। उसने यह नहीं सोचा कि सर्दी में मोजे पहनकर आए भक्त जब यहां से गुजरेंगे तो उनके मोजे गीले हो जाएंगे व उन्हें घर पहुंचते ही इन्हें उतारना पड़ जाएगा। जब कैप्टन अनुज नयार को श्रृद्धांजलि देने पहुंचे तो वहां सोसायटी के एक बुजुर्ग नंदा साहब भी अपने सेवक का हाथ पकड़कर मंदिर में जा रहे थे।

सेवक को डर था कि कहीं उनका पैर न फिसल जाए। जब मैंने सफाई वाले से ऐसा करने की वजह पूछी तो उसने कहा कि यह तो रोज ही होता है। वह सफाई करने के लिए जल्दी न आने की वजह नहीं बता सका। मैं पूजा करने के बाद मंदिर की परिक्रमा भी करता हूं। मेरे द्वारा बार-बार मना करने के बाद भी वहां बैठने के लिए रखी कुर्सियों का ढेर सफाई वाले एक कोने में रखकर उसपर पोछे के गीले कपड़े लटका देते है व मंदिर की परिक्रमा करते समय वहां से गुजरने पर वहां गंदे कपड़े मुझसे टकराते है क्योंकि मंदिर सोसायटी के एक कोने में स्थित है। हमारे चलने के लिए मात्र तीन फुट की बचते हैं जिसमें दो-ढाई फुट जमीन तो प्लास्टिक की कुर्सियों का ढेर ही घेर लेता है। इस बारे में बार-बार याद दिलाने के बावजूद जींस पहने व आधुनिक स्टाइल की भाव भंगिमा लिए सफाईकर्मियों के कानों पर जूं नहीं रेंगती है। सुबह अगर सोसायटी के बाहर पैदल निकले तो नहा-धोकर दफ्तर जाते लेागों को सड़क पर झाडू लगाए जाने के कारण उड़ रही धूल धोकर रख देती है। सफाईकर्मी को यह नहीं लगता कि वह या तो थोड़ा पहले सफाई कर दे अथवा किसी के गुजरने के समय झाडू लगाना बंद कर दे। उन्हें यह लगता ही नहीं कि वे कुछ गलत कर रहे हैं।

सोसायटी की पहली या अपनी मंजिल पर रहने वाली पढ़ी-लिखी महिलाएं छज्जे पर खड़े होकर अपने बाल काढ़ती है व टूटे हुए बाल हवा में उड़ा देती है जोकि नीचे किसी के घर के छज्जे पर गिर जाते हैं। बहुरराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी करने वाली इन युवतियों व महिलाओं को जरा-सा भी नहीं लगता कि उनकी यह हरकत कितनी असमाजिक है। सोसायटी की किनारों में या दीवार पर पान की पीक या पान-पराग थूक देना तो बहुत आम बात है। पढ़े-लिखे लाखों रुपए के फ्लैट के मालिकों को यह लगता ही नहीं है कि वे कुछ गलत कर रहे हैं। उन्हें जब यह करते हुए पकड़ता हूं तो यही मन करता है कि इन्हें अच्छे तरह से हड़काऊ या उन्हें उसकी सफाई करने के लिए बाध्य करूं। मगर सोसायटी के समझदार लोग समझाते हैं कि तुम क्यों टकराव लेते हो? या तुमने सफाई का समाज सुधार का ठेका ले रखा है? बेकार में लोगों से संबंध खराब हो जाएंगे। तुहारा अपना घर साफ रहे इतना ही काफी है। आप किसी की आदत नहीं बदल सकते हैं। फिर बचपनकी याद आ गई जबकि स्कूल में अध्यापिका हम छोटे बच्चों को संवेत स्वरों में बौद्धिक विलास का परीक्षण करती थी। वे कहती कौआ उड़, तोता उड़, चिडिय़ा उड़, हाथी उड़, कुत्ता उड़, छिपकली उड़।

तब दूसरी कक्षा के बच्चो के बीच से बहुत कम आवाज, कुत्ता हाथी या छिपकली उड़ करने की आती थी। इतने छोटे बच्चे भी इस बात का ध्यान रखते थे कि कौन-सा जानवर चलता है व कौन सा पक्षी उड़ता है। जब मैं अपने बच्चे का नर्सरी में दाखिला करवाने गया तो उसका इंटरव्यू लेने वाली टीचर ने उसके आगे एक डब्बा रख दिया जिसमें प्लाईवुड के जानवरों व पक्षियों के शरीर के काफी टुकड़े थे। उन्होंने उससे उनसे हाथी बनाने को कहा। वे देख रही थी कि बच्चा हाथी की शल बनाते समय उसके शरीर को आकार के टुकड़े जोड़कर उनमें पूंछ, सूंड व दांत आदि लगाता है या नहीं। तब मैंने किसी भी बच्चे को गलत जानवर बनाते नहीं देखा। मगर जब वो बड़े हो जाते हैं तो उनका बुद्धि विलास इतना कमजोर क्यों हो जाता हैं? हम गाड़ी चलाते समय लालबत्ती पर आगे क्यों बढ़ जाते हैं? केला खाकर उसका छिल्का सड़क पर क्यों फेंक देते हैं? कई बार तो मुझे लगता है कि जैसे-जैसे हमारी आयु बढ़ती है हमारी सोच बहुत ठस होती जाती है। उसे दुरूस्त करने का कोई उपाय नहीं समझ आता।

विवेक सक्सेना
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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