क्रिसमस पर कहां गए पर्यावरणविद्?

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पच्चीस दिसंबर को देश-दुनिया ने क्रिसमस पर्व धूमधाम से मनाया। सभी पाठकों को इसकी ढेरों बधाई और नववर्ष 2020 की असीम शुभकामनाएं। क्या इस पर्व पर समाज के भीतर किसी प्रकार का शोर सुनाई दिया, जैसा अक्सर बहुसंख्यक के त्योहारों में सुनाई देता है? शायद नहीं। क्या यह माना जाए कि केवल हिंदुओं के त्योहार- पर्यावरणीय क्षय, प्राकृतिक संसाधनों की कमी और मनुष्य-पशु जीवन पर खतरे का कारण बनते है?

विश्व के प्रत्येक पर्व के पीछे कुछ मान्यताएं, परंपराएं और उसकी एक विस्तृत पृष्ठभूमि होती है। क्रिसमस इन सबसे अलग नहीं है। ईसाई मान्यता के अनुसार है कि हजारों वर्ष पहले मैरी नामक एक युवती के पास गैब्रियल नामक देवदूत ईश्वर का संदेश लेकर पहुंचे थे।

उन्होंने मैरी को जानकारी दी कि वह प्रभु के पुत्र को जन्म देगी और उस शिशु का नाम जीसस रखा जाएगा। देवदूत गैब्रियल, जोसफ के पास भी गए और उन्हे सलाह दी कि वह मैरी की देखभाल करें और उसका साथ न छोड़े। ईसा को मैरी ने आधी रात को एक अस्तेबल में जन्म दिया। इसी घटना को ईसाई समुदाय क्रिसमस के रुप में मनाते है। लेकिन चौथी शताब्दी के मध्य तक ऐसा नहीं था।

अब बेथलहम में ईसा मसीह का जन्म 4 ई।पू। में ‘25 दिसंबर’ को ही हुआ था, इसे लेकर ईसाई समाज में कई स्वर है। यहां तक ईसाइयों के पवित्रग्रंथ बाइबल में भी यीशु मसीह के जन्मतिथि का कोई उल्लेख नहीं है। कई साहित्यों से स्पष्ट है कि विश्व में क्रिसमस की शुरूआत चौथी शताब्दी में तब हुई, जब सन् 336-40 में पोप जुलिया-1 ने 25 दिसंबर को ईसा मसीह के जन्मदिन की घोषणा की और 11वीं शताब्दी से इस पर्व को अंग्रेजी में “क्रिमसम” नाम से जाना गया। इससे पहले यह “क्रिस्टे-मैसे” अर्थात् “मसीह के त्योहार” के रूप में जाना जाता था। इसी दौर में ही रोमन कैथोलिक चर्च के निर्देश पर पश्चिमी यूरोपीय ईसाइयों ने यरुशलम स्थित ईसा की समाधि पर कब्जा करने हेतु मुसलमानों से लगभग 200 वर्षों तक संघर्ष किया था, जिसे क्रूसेड- अर्थात् क्रूश युद्ध नाम से जाना जाता है।

दिलचस्प तथ्य तो यह है कि चौथी शताब्दी से पहले ईसाई धर्मगुरु मजहबी कारणों से यीशु के जन्मदिवस को त्योहार के रूप में मनाते नहीं थे। उस समय ईसाई समाज में केवल ईस्टर और एपिफनी (प्रभुप्रकाश) का चलन था। मध्यकाल में भी क्रिसमस इतना लोकप्रिय नहीं हुआ। वर्ष 1647 में प्रोटेस्टेंट प्यूरिटन द्वारा इंग्लैंड में क्रिसमस पर कई वर्षों के लिए प्रतिबंधित कर दिया। इसी तरह अमेरिका के बोस्टन में भी क्रिसमस गैर-कानूनी घोषित था। कालांतर में रोमन कैथोलिक चर्च का प्रभाव बढ़ने के पश्चात अमेरिका में 1870 से क्रिसमस पर राजकीय अवकाश घोषित कर दिया गया। मुस्लिम विद्वान इब्न तैमिया (1263-1328) ने अपने जीवनकाल में उन मुस्लिमों के प्रति निराशा प्रकट की थी, जो पैगंबर साहब की जयंती पर अक्सर क्रिसमस जैसा उत्सव मनाया करते थे। अब स्थिति काफी बदल चुकी है, यहां तक अरब देशों में भी क्रिसमस मनाया जाने लगा है।

इस पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति क्या है? हमारा देश विविधताओं से भरा है, यहां विभिन्न मजहबों के लाखों-करोड़ों अनुयायी न केवल सभी मौलिक अधिकारों के साथ जीवन-यापन करते है, साथ ही वह अपने-अपने रीति-रिवाजों, त्योहारों, संस्कृति और परंपराओं के निर्वाहन के लिए भी स्वतंत्र है। इस सामाजिक व्यवस्था की जड़े भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति से सिंचित है और हमारा संविधान इसका प्रतिबिंब। फिर भी अक्सर देखा जाता है कि देश में जब भी दीपावली, होली आदि हिंदू पर्व निकट होते है, उस समय समाज का एक वर्ग- जो स्वयं को उदारवादी और प्रगतिवादी भी कहता है- वह इन परंपराओं से एकाएक व्यथित हो उठता है और कई त्योहारों को “इको-फ्रेंडली” रुप से मनाने पर बल देने लगता है।

क्रिसमस संबंधित कई परंपराएं है। आज क्रिसमस, टर्की पक्षी के मांस-सेवन के बिना अधूरा है। यह परंपरा 500 वर्ष पुरानी है। माना जाता है कि 16वीं शताब्दी में किंग हेनरी-अष्टम ही पहले ऐसे ब्रितानी सम्राट थे, जिन्होंने क्रिसमस पर इसके सेवन की परंपरा शुरू की, जो कालांतर में लोकप्रिय होती चली गई। इससे पहले तक इस पर्व पर यूरोपवासी केवल गौमांस, शूकर के सिर और चिकन का सेवन करते थे और आज भी कई यूरोपीय देशों पर इसका उपभोग किया जाता है।

आंकड़ों के अनुसार, इंग्लैंड में क्रिसमस के समय अपने तथाकथित “पारंपरिक भोजन” के लिए प्रतिवर्ष 50 लाख से अधिक टर्कियों को बूचड़खानों में क्रूरता के साथ मार दिया जाता है। यही नहीं, एक औसत नर टर्की पक्षी का वजन 7.5 किलो होता है, किंतु अधिक लाभ पाने की इच्छा अनुरूप आप्राकृतिक रूप और रसायनों के माध्यम से उसे 25 किलो वजनी तक करने का प्रयास किया जाता है। इस दौरान सैकड़ों टर्की पक्षी दम तक तोड़ देते है। बात यदि अमेरिका की करें, तो यहां 30 करोड़ टर्कियां क्रिसमस और थैंक्सगिविंग-डे के लिए मार दी जाती है।

यदि बात भारत की करें, तो यहां 3 करोड़ से अधिक ईसाई बसते है। क्रिसमस के समय भारत में भी विशेषकर दक्षिण और पूर्वोत्तर भाग में चिकन और टर्की के साथ-साथ परंपरा के नाम पर गोवंश के मांस का भी सेवन किया जाता है, जिसे लेकर देश के करोड़ों हिंदुओं की आस्था जुड़ी हुई है। यह स्थिति तब है, जब संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट स्पष्ट रूप से कहती है कि गौमांस पर्यावरणीय रूप से सबसे हानिकारक मांस है, क्योंकि इससे सर्वाधिक विषैली कार्बन गैस का उत्सर्जन होता है। अब जो विदेशी वित्तपोषित गैर-सरकारी संस्थाएं पर्यावरण संरक्षण के नाम पर अक्सर दीपावली पर पटाखों के धुएं या होली पर पानी की बर्बादी को लेकर आंदोलित रहते है, क्या उन्होंने गौमांस के सेवन से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव का संज्ञान लिया है? नहीं। आखिर इस दोहरे रवैया का कारण क्या है?

क्रिसमस- उपहारों के आदान-प्रदान, बाजारों में सजावट का सामन और सार्वजनिक छुट्टी के कारण विश्वभर में एक बड़ी आर्थिक गतिविधि बन चुकी है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। प्राय: इस दिन घरों और बाजारों को सजाने हेतु प्लास्टिक और थर्माकॉल का उपयोग अत्याधिक मात्रा में होता है। अकेले ब्रिटेन में 1।25 लाख टन प्लास्टिक का उपयोग क्रिसमस संबंधित खाद्य और अन्य पदार्थों की पैकिंग में होता है।

सजावट में क्रिसमस वृक्ष अधिकतर कृत्रिम होते है, जिसे प्लास्टिक से बनाया जाता है, जो बाद में लाखों टन कचरे के ढेर में परिवर्तित हो जाता है। ब्रिटेन में ही 60 लाख से अधिक प्लास्टिक के क्रिसमस वृक्ष का इस्तेमाल होता है। क्या यह सत्य नहीं कि पर्यावरण और मनुष्य-जीवन के लिए प्लास्टिक कितना हानिकारक है? इसके अतिरिक्त, भारत सहित विश्व में क्रिसमस पर लगभग 224 करोड़ बधाई/संदेश पत्र भेजे जाते है, जिसे बनाने में कई लाख पेड़ काट दिए जाते है।

इस पृष्ठभूमि में हिंदुओं के पवित्र पर्व महाशिवरात्रि पर शिवलिंग या भगवान शिव को दूध अर्पित करने की परंपरा है। इसे स्वघोषित प्रगतिशील (अधिकांश वामपंथी) वर्ग अक्सर पाखंड की संज्ञा देते हुए कहते है कि इस दूध का सदुपयोग सड़कों पर घूमने वाले उन निर्धन बच्चों को देकर किया जा सकता था, जो भूख के शिकार होते है। निर्विवाद रूप से यह मार्मिक भावना है, जिसका सभ्य समाज सम्मान भी करता है। किंतु इसी समूह की यही भावना क्रिसमस के समय क्यों नहीं जागृत होती है, जब करोड़ों-अरबों रुपया केवल बाजारों, मॉल, घरों इत्यादि को रोशनी से सजाने और कृत्रिम क्रिसमस वृक्ष सहित अन्य प्लास्टिक उत्पाद को तैयार करने पर व्यय कर दिया जाता है? आखिर इस धन के सदुपयोग करने की युक्ति इस जमात के पास क्यों नहीं होती है? इस प्रकार का दोहरे मापदंड का कारण क्या है?

भारत की सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता के खिलाफ कई वर्षों से षड्यंत्र रचा जा रहा है। देश में ऐसे कई संगठन विद्यमान हैं, जो विदेशी धन और विदेशी एजेंडे के बल पर पशु अधिकार, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय, महिला सशक्तिकरण, मजहबी सहिष्णुता और पर्यावरण की रक्षा के नाम पर भारत की कालजयी सनातन संस्कृति और बहुलतावाद को चोट पहुंचा रहे हैं, जिसमें उन्हे राष्ट्रविरोधी तथाकथित सेकुलरिस्टों और वामपंथी चिंतकों का आशीर्वाद प्राप्त है।

पर्यावरण की रक्षा मानवहित में है, तो केवल भारतीय सनातन दर्शन और उसकी परंपराएं प्रकृति संरक्षण का एक आदर्श प्रतिरूप। आवश्यकता इस बात की है कि सभी शोधों की पृष्ठभूमि में समग्र त्योहारों की समीक्षा की जाए। क्या भारत जैसे विशाल देश में प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों पर केवल हिंदुओं के रीति-रिवाज और पर्व ही प्रतिकूल प्रभाव डालते है, जबकि अन्य मजहबों की परंपराएं और जीवन-शैली पर्यावरण अनुकूल है? जबतक एक विशेष समुदाय के पर्वों को निशाना बनाया जा रहेगा, तबतक समाज में इस तरह के प्रश्न खड़े होते रहेंगे। इस स्थिति में परिवर्तन की आशा लिए आप सभी पाठकों को नववर्ष 2020 की पुन: हार्दिक शुभकामनाएं।

बलबीर पुंज
लेखक भाजपा से जुड़े हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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