देश की आर्थिक तस्वीर में इन दिनों जो उदासी भरने वाले रंग दिख रहे हैं उससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसी के साथ यह भी सच है कि मोदी सरकार स्थितियों को संभालने की दिशा में प्रयत्नशील दिखाई दे रही है। फिर भी देश की मौजूदा तस्वीर बेहद चुनौतीपूर्ण दिखती है इससे तो सरकार भी इंकार नहीं कर सकती। हालांकि उसकी तरफ से चल रही कोशिशें एक तरह से स्वीकारोक्ति ही है। अभी तरोताजा इकोनॉमिक थिंक टैंक एनसीएईआर ने 2019-2020 के लिए भारत की अनुमानित जीडीपी दर साढ़े चार फीसदी जताई है। इससे पहले एक रिपोर्ट में लगभग पांच फीसदी विकास दर का अनुमान था। याद करें अभी कुछ महीनों पहले ही लगभग सात फीसदी विकास दर बने रहने की बात कही गयी थी। वैसे स्टेट बैंक की रिसर्च विंग ने पिछले हफ्ते कहा था- आने वाले दिनों में कई खराब खबरें सुनने-देखने को मिल सकती है। सरकारी-निजी बैंक सेक्टर की मौजूदा स्थिति सर्वविदित है। टेलीकॉम सेक्टर भी घाटे के नए प्रतिमान गढ़ रहा है। बीएसएनल पहले से खस्ताहाल है। इन दिनों वीआरएस पैकेज पर सारा फोकस है।
अपने स्वामित्व वाली रिलायंस कम्पनी के निदेशक अनिल अम्बानी पद से इस्तीफा दे चुके हैं। वोडा-आइडिया ने तो पहले से हाथ खड़े करते हुए सरकार से मदद की गुहार लगाई है। बीती दो तिमाही में ओद्योगिक उत्पादन चार फीसदी पर पहुंच गया है। त्योहारी सीजन में भी वाहन सेक्टर ने मामूली बढ़त दर्शाई है। तस्वीर तो यही बनती है। अब ऐसे समय में आर्थिक त्रासदी से बाहर आने का कोई रास्ता हो इस पर सभी स्टेक होल्डरों को मिल बैठ विचार करने और किसी नतीजे तक पहुंचने की जरूरत है या फिर मात्र मातमपुर्सी करने की यह तय किये जाने का वक्त है। बेशक हालात नीतियों से बनते -बिगड़ते हैं इस पर कोई ऐतराज भी करे तो क्या फर्क पड़ता है। मसलन नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक के इम्प्लीमेंटेशन में हुई चूक को गिना सकते हैं। पर इससे कोई राह निकल सकती है क्या शायद नहीं। यह अच्छी खबर है शीतकालीन सत्र में संसद इकोनॉमिक स्लोडाउन पर चर्चा करेगी। देश की सबसे बड़ी पंचायत से यही उम्मीद भी की जाती है। सियासत ना हो यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए लेकिन हंगामे के बगैर पूरी चर्चा हो इसकी उम्मीद जनता जरूर करती है।
वैसे पिछले सत्र में काफी कामकाज हुआ। ढेर सारे बिल पास हुए इसकी सराहना के साथ चर्चा भी हुई। चर्चा हो इस पर जोर का मतलब इस वजह से है कि भावनात्मक मुद्दों की आड़ में जरूरी मुद्दे बिना चर्चा के रह जाते हैं। ऐसा ना हो माननीय जनप्रतिनिधियों से अपेक्षा है। देश के सामने कई गंभीर मसले हैं। दिल्ली में लोगों को सप्लाई होने वाला पानी पीने लायक नहीं है और मजबूरन लोगबाग बिसलरी का पानी पीते हैं। एक तरफ मोदी सरकार का नारा है कि देश में हर घर लोगों को नल से जल दिया जाएगा ताकि साफ-सुथरा जल हर किसी को मिल सके । यहां तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लोगों को पीने योग्य पानी नहीं मिल पा रहा। यूपी के ग्रामीण क्षेत्रों में खासतौर पर बहराइच-बस्ती और सिद्धार्थनगर में तो गांव वाले भी बिसलरी का पानी पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं। और यह तब है जब केंद्र व राज्य सरकार के सहयोग से स्वच्छ जलधारा योजना चलाई जाती है। यह योजना बरसों से चल रही है लेकिन जमीन पर हालात यथावत है। प्रदूषण का हाल देश में कमोबेश एक जैसा है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण को कितनी गंभीरता से लिया जाता है यह किसी से छुपा नहीं है।
हवा-पानी खराब होने का मतलब तरह-तरह की बीमारी। ऐसे समय में जब चौतरफा इकोनॉमिक स्लोडाउन है तब पर्यावरण जनित खर्चे कितने कष्टकारी होंगे समझा जा सकता है। ग्रामीण इलाकों की क्या हालत है हालिया रिपोर्ट बताती है। लगता है ग्रामीण मांग में आई गिरावट सबाब पर पहुंच गई है क्योंकि देश में उपभोक्ता खर्ज (कन्ज्यूमर स्पेंडिंग) 4 दशक से ज्यादा की अवधि के निम्नतम स्तर पर है। एक सरकारी सर्वे के मुताबिक 2017-18 में उपभोक्ता खर्च में आश्चर्यजनक गिरावट आई है। यह सर्वे अभी प्रकाशित नहीं हुआ है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की ओर से प्रमुख सूचकांक भारत में घरेलू उपभोक्ता खर्च हाउसहोल्ड कन्ज्यूमर एक्सपेंडिचर इन इंडिया नाम से किए गए सर्वे के मुताबिक, 2017-18 में देशवासियों का व्यक्तिगत औसत मासिक खर्च घटकर 1,446 रुपये पर पहुंच गया जो 2011-12 में 1,501 रुपये था। यह 3.7: की गिरावट है। सर्वे के मुताबिक, 2011-12 में मासिक प्रति व्यक्ति खपत खर्च बढक़र 13 फीसदी हो गया था। यह वृद्धि पीछे के दो वर्षों की अवधि में हासिल हुई।
यह बताना महत्वपूर्ण है कि ये आंकड़े रियल टर्म्स में हैं जिसका मतलब है कि इनमें 2009-10 के आधार वर्ष के मुताबिक महंगाई को अजस्ट कर दिया गया है। यह सर्वे जुलाई 2017 और जून 2018 के बीच कियागया है। इसमें पाया गया कि पिछले छह साल में देश के ग्रामीण हिस्सों में व्यक्तिगत खर्च में 8.8 फीसदी की औसत गिरावट आई जबकि शहरी क्षेत्रों में 2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। सर्वे से पता चला कि गांव के लोगों ने दूध और दूध से बनने वाले उत्पादों को छोडक़र सारे सामानों की खरीद में कटौती की। बड़ी बात यह है कि देशभर के लोगों ने तेल, नमक, चीनी और मसाले जैसी जरूरी वस्तुओं पर खर्च में बड़ी कमी की। गैर-खाद्य वस्तुओं पर खर्च के आंकड़े मिले जुले आए हैं। ग्रामीण भारत में गैर-खाद्य वस्तुओं की खपत 7.6 फीसदी कम हुई जबकि शहरी इलाकों में 3.8 फीसदी की वृद्धि देखी गई। ग्रामीण भारत में 2017-18 में भोजन पर मासिक खर्च औसतन 580 रुपये हुआ था जो 2011-12 में 643 रुपये के मुकाबले 10 प्रतिशत कम है। वहीं, शहरी क्षेत्र में इस मद में मामूली बढ़त देखी गई। यहां 2011-12 में लोगों ने 946 रुपये प्रति माह का औसत खर्च किया था जो 2017-18 में महज 3 रुपये बढक़र 946 रुपये हुआ। इन स्थितियों पर देश का सत्ता प्रतिष्ठान और विपक्ष रचनात्मक विमर्श करे तो यकीनन रास्ता निकलता है। गिलास पानी से आधा भरा है या फिर आधा खाली है-इस तर्क जाल से बाहर निकलने की आवश्यकता है।
प्रमोद कुमार सिंह
(लेखक वरिष्ठपत्रकार हैं, ये उनके विचार हैं)