‘दीवरें’ गिरने की उम्मीद बंधाता फैसला

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संयोग है या फिर सुप्रीक कोर्ट ने जानबूझकर नौ नवंबर की तारीख को देश की बहुसंख्यक आस्था के प्रतीक राम मंदिर पर फैसला सुनाया, इस बारे में ठीक -ठीक कुछ कह पाना मुश्किल है। इस तारीख की विशिष्टता पर देश का ध्यान तब गया, जब इसका जिक्र राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने किया। जर्मनी के बनावटी बंटवारे का प्रतीक रही बर्लिन की दीवार गिराने की शुरुआत ठीक तीन दशक पहले इसी तारीख को हुई थी। पहली नजर में लगता है कि प्रधानमंत्री का संकेत भारतीय बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच की दीवार की ओर हो सकता है। लेकिन जानकार मानते हैं कि इसके कुछ और भी मतलब हो सकते हैं। इसकी वजह बनी है, केंद्र की सत्ता में आने के बाद से नरेंद्र मोदी द्वारा लिए गए अहम फैसले। प्रधानमंत्री ने खुद भले ही सोच-समझकर फैसले किए हों, लेकिन समीक्षकों और विश्लेषकों की नजर में उनके ज्यादातर फैसले चौंकाने वाले ही रहे हैं। नोटबंदी हो या सर्जिकल स्ट्राइक या फिर बालाकोट में कार्रवाई- प्रधानमंत्री ने अपने इन फैसलों से दुनिया को चौंकाया ही है।

हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच जो दीवार खड़ी हो चुकी है, अगर वह इस फैसले के बाद टूटती है तो प्रधानमंत्री की इस उम्मीद का स्वागत ही किया जाना चाहिए। वैसे भी राजनीतिक फायदे के लिए अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की ओर कदम बढ़ाने का आरोप अतीत की तमाम सत्ताधारी पार्टियों पर लगता रहा है। नब्बे के दशक में उन राजनीतिक धाराओं पर भी इसे बढ़ावा देने का आरोप लगा जो डॉक्टर लोहिया का अनुयायी होने का दम भरती हैं। लोहिया बेशक अल्पसंख्यकों के संरक्षण के हिमायती थे, लेकिन वे तुष्टीकरण के खिलाफ थे। उत्तर प्रदेश में तमाम ताकीदों के बावजूद एक चुनावी सभा में उन्होंने तीन तलाक के विरोध में भाषण देने से परहेज नहीं किया था। आज जो राम मंदिर चर्चा में है, उसके लिए लोहिया और मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के अध्यक्ष पुणे के हमीद दलवाई ने मुस्लिम युवकों की सत्याग्रही टोलियां बनाने की तैयारी की थी। उनका मकसद विवादित जमीन बहुसंख्यक वर्ग को दिलाने की थी। दोनों का मानना था कि अगर ऐसा होता है तो इससे अल्पसंख्यकों का भरोसा बहुसंख्यकों में बढ़ेगा।

लेकिन इस योजना पर अमल हो पाता, उससे पहले ही लोहिया का देहांत हो गया। तीस साल पहले बर्लिन की दीवार ही नहीं टूटी थी, दोनों तरफ के लोगों के दिलों को बांटने की जो कोशिश मित्र देशों और सोवियत ताकतों ने की थी, वह भी धूल-धूसरित हुई थी। अयोध्या पर आए फैसले के बाद दोनों समुदायों ने जैसी समझ दिखाई है, उससे यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि दोनों समुदायों के बीच की करीब तीन दशक पुरानी अविश्वास की खाई खत्म हो सकेगी। एकराष्ट्र के रूप में भारत की यह बड़ी उपब्धि होगी। लगता है कि बर्लिन की दीवार का जिक्र करके प्रधानमंत्री ने भारत की ऐतिहासिक गलती की तरफ ध्यान दिलाया है। एक हलके में माना जा रहा है उसे सुधारने की दिशा में भी उनका अंतर्मन सक्रिय है। आजादी के सत्तर साल बाद भी यह बात जब-तब उठती रहती है कि भारत का विभाजन बनावटी था। इसे दोनों तरफ के संजीदा लोग स्वीकार नहीं कर पाए। तो क्या प्रधानमंत्री बर्लिन की दीवार टूटने का इस संदर्भ में जिक्र कर रहे थे? आज भारत और पाकिस्तान की बहुसंख्यक आबादी की सोच जिस स्तर पर पहुंच गई है, उसमें दोनों देशों के बीच एकता की उम्मीद भी करना बेमानी है।

हालांकि डॉक्टर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय को आखिर तक उम्मीद थी कि इस बनावटी विभाजन की गलती को एक न एक दिन पाकिस्तान के लोग समझेंगे। लोहिया से एक मुलाकात के दौरान दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा, जब पाकिस्तान के अधिकांश मुसलमान इस बात को समझेंगे कि अलग होकर उन्होंने अपना ही नुकसान किया है। ऐसी स्थिति जब आएगी तो पूरी संभावना होगी कि भारत और पाकिस्तान मिलकर एक संघात्मक ढांचा बनाएं। इसी सोच की आधारभूमि पर 12 अप्रैल 1964 को लोहिया और दीनदयाल ने ऐतिहासिक वक्तव्य जारी किया था जिसमें कहा गया था कि पाकिस्तान को एकन एक दिन यह एहसास होगा कि विभाजन भारत और पाकिस्तान के न तो हिंदुओं और न ही मुसलमानों के लिए अच्छा रहा और परिणाम के तौर पर दोनों देश भारत-पाक महासंघ के लिए मानसिक तौर पर तैयार होंगे। बर्लिन की तरह भारत और पाकिस्तान के बीच की दीवार गिर जाए तो दोनों तरफ के लोगों के लिए इससे अच्छी कोई बात नहीं हो सकती।

याद किया जा सकता है कि पूर्वी जर्मनी के लोग चाहते थे वह दीवार टूटे। जनवादी जर्मन गणतंत्र के सैनिकों की गोलियों की परवाह न करते हुए आए दिन पूर्वी जर्मन नागरिक दीवार को फांदने की कोशिश करते रहे। उनका दर्द पश्चिमी जर्मनी के तत्कालीन चांसलर हेलमुट कोल ने समझा और दीवार को तोडऩे के लिए अभियान छेड़ दिया। इस सिलसिले में उन्होंने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाचोव के सामने मत्था टेका। यूरोप के दूसरे देशों को इसके लिए तैयार करने की कोशिशों में कोल को अपमान तक झेलना पड़ा। सारे पूर्वाग्रह छोड़ उन्होंने पूर्वी जर्मनी के तत्कालीन क क्युनिस्ट शासक एरिस होनेकर से भी बात की। इस संदर्भ में देखें तो भारत-पाकिस्तान के बीच कम से कम वैसे बुरे हालात नहीं हैं, लेकिन दोनों देशों के बीच एक बंटवारा ऐसा है, जो पूरी तरह गैर कानूनी है। कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है। गिलगित और बाल्टिस्तान में आए दिन भारत समर्थक नारे लग ही रहे हैं। भारत सरकार संसद और बाहर, इन दिनों बार-बार दोहरा रही है कि पाक अधिकृत कश्मीर भी भारत का हिस्सा होगा। तो क्या प्रधानमंत्री पाक अधिकृत कश्मीर की दीवार तोडऩे की तैयारी में हैं? प्रधानमंत्री की कार्यशैली का इतिहास देखें तो यह संभावना सिरे से खारिज करने लायक नहीं लगती।

उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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