किसी जमाने में एक रियासत के महाराज थे। महाराज के पास एक हाथी था, जो उन्हें बहुत प्रिय था। एक दिन हाथी की तबियत खराब हो गई और धीरे धीरे तबियत ज्यादा बिगड़ती चली गई। महाराज एक दिन हाथी को देखने गए। उसे देख कर लगा कि अब यह नहीं बचेगा। सो, महाराज दुख और निराशा में डूब गए। उन्होंने अपने मंत्रियों और तमाम मातहत लोगों से कहा कि जो भी उन्हें हाथी के मरने की सूचना देगा, उसे मृत्यु दंड दिया जाएगा। अगले दिन हाथी मर गया। पर किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी महाराज को सूचना देने की। किसी तरह से महावत ने हिम्मत की और जाकर महाराज से कहा- महाराज आपका हाथी न तो कुछ खा रहा है, न कुछ पी रहा है, न हिल रहा है, न डोल रहा है, न सांस ले रहा है! इस पर महाराज ने पूछा- क्या मेरा हाथी मर गया? महावत ने कहा- महाराज यह आप कह सकते हैं, मैं कैसे कह सकता हूं!
यहीं हाल भारत की आर्थिक स्थिति का है। महाराज के सारे मंत्री, अधिकारी आदि अलग अलग तरह से कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था की सांस टूट गई है। पर कौन कहे कि देश में आर्थिक मंदी है! यह बात खुद महाराज कहें तो कहें बाकी किसी ने कही तो ‘मृत्यु दंड’ का खतरा है। सो, महाराज अब खुद कहिए और मानिए की देश में आर्थिक मंदी है। अर्थव्यवस्था की सांसें उखड़ गई हैं। कोई मंत्री या अधिकारी खुल कर नहीं कह रहा है इसका मतलब यह नहीं है कि सब ठीक है। बिल्ली को आते देख कबूतर की तरह आंख बंद कर लेने से खतरा नहीं टलने वाला है। आंख खोल कर उड़ने का रास्ता खोजने से जान बचेगी। अपनी आर्थिक ‘नीतियों’ की विफलता मान लेने से हो सकता है कि आपके अहम को ठेस पहुंचे पर आपका अहम देश के 130 करोड़ लोगों की भलाई से बड़ा नहीं होना चाहिए।
सोचिए इससे ज्यादा मंदी क्या होगी कि लाखों लोगों की नौकरियां जा रही हैं। फैक्टरियां और कंपनियां बंद हो रही हैं। लोगों की बचत घट रही है। बैंकों का एनपीए बढ़ रहा है। सरकार की कंपनियों पर कर्ज दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है। सरकार को रिजर्व बैंक के सुरक्षित कोष से पैसे लेने पड़ रहे हैं। पुरखों की कमाई संपत्ति और यहां तक कि घर के बरतन भांडे बेचने की नौबत आई हुई है। पेट्रोल के दाम पांच दिन में एक रुपए 60 पैसे प्रति लीटर बढ़ गए और प्याज के दाम एक सौ रुपए किलो पहुंचने वाला है। आपकी सरकार टुकड़ों टुकड़ों में कुछ उपाय भी कर रही है। देश पर भार बन गए बजट प्रावधान वापस लिए जा रहे हैं और प्रोत्साहन पैकेज भी दिए जा रहे हैं। पर महाराज आप हैं कि मान ही नहीं रहे हैं कि देश की हालत खराब है! आप अब भी पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था की बात किए जा रहे हैं!
पिछले एक महीने के भीतर एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए भारतीय रिजर्व बैंक से और एक लाख 45 हजार करोड़ रुपए कर राजस्व से यानी सवा तीन लाख रुपए सरकारी खजाने से निकल गए। इसका फायदा यह बताया जा रहा है कि शेयर बाजार में तेजी लौटी है और कंपनियों की बाजार पूंजी का जो नुकसान हुआ था उसकी भरपाई हो जाएगी। पर इसकी भी असलियत कुछ और है। असल में शेयर बाजार की तेजी में भारत सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों को फायदा नहीं हो रहा है। उनके शेयरों में तेजी नहीं लौटी है। उनका नुकसान जारी है।
इस चौतरफा नुकसान की भरपाई के लिए सरकार विनिवेश की रफ्तार बढ़ाएगी। पहले ही सरकार ने इस वित्त वर्ष में एक लाख पांच हजार करोड़ रुपए विनिवेश से जुटाने का लक्ष्य रखा है। पेट्रोल और डीजल पर नया अधिभार लगा कर सरकार एक लाख करोड़ रुपए जुटा रही है। आरबीआई से एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए ले लिए। अगर सब कुछ ठीक है तो घर के बरतन भांडे बेचने की नौबत क्यों आई है या सुरक्षित कोष निकालने की क्या जरूरत है या जनता के ऊपर कर का भार बढ़ाने की क्या जरूरत है?
इसके अलावा भी मंदी का संकेत देने वाले ढेर सारे संकेत हैं। वाहन उद्योग अब तक के सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रहा है। दस लाख नौकरियां जाने वाली हैं। क्रेडिट सुईस ने कहा है कि भारत का एफएमसीजी सेक्टर यानी रोजमर्रा के इस्तेमाल वाली चीजों का बाजार 15 साल के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है। सरकार की अपनी कंपनियों की हालत बुरी तरह से बिग़ड रही है। देश के दस सबसे बड़े सार्वजनिक उपक्रमों, पीएसयू के ऊपर मार्च 2014 के अंत में चार लाख 38 हजार करोड़ रुपए का कर्ज था, जो मार्च 2019 में बढ़ कर छह लाख 15 हजार करोड़ हो गया है। बैंकों का एनपीए भी दोगुना हो गया है और बट्टे खाते में डाली जाने वाली रकम भी कई गुना बढ़ गई है। इन सब संकेतों को समझना होगा और संकट को स्वीकार कर उससे निपटने के उपाय करने होंगे।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकरा हैं, ये उनके निजी विचार हैं