मसला सच बनाम लीपापोकी का है

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मसला सच बनाम झूठ का है। बुद्धि बनाम मूर्खता का है। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने बुधवार को संसद में भाषण देते हुए कहा कि जर्मनी में आर्थिक हालात ठीक नहीं हैं, मंदी की स्थिति है। सो, सरकार की टैक्स कमाई उम्मीद से कम रह सकती है! यह उनका सत्य बोलना था। क्या ऐसा कोई वाक्य आपने कभी भारत के मौजूदा आर्थिक हालातों पर प्रधानमंत्री या वित्त मंत्री या आर्थिक रीति-नीति वाले किसी नियंता के मुंह से सुना है? नहीं सुना। क्यों? वजह में सरकार यह झूठ बोलेगी कि भारत में मंदी नहीं है, भारत की आर्थिकी फुदकती हुई है। सो, क्यों जनता को, देश को, दुनिया को बताएं कि आर्थिक हालातों के मद्देनजर सरकार की टैक्स आमद घट सकती है। या यह कि हालात ठीक नहीं हैं तो लोगों को मंदी के लिए तैयार रहते हुए फलां-फलां सावधानी बरतनी चाहिए।

पर परसों भारत ने क्या सुना? भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का यह वाक्य कि कारों की बिक्री इसलिए कम है क्योंकि नई पीढ़ी ओला और उबर टैक्सी में सफर करती है! और आज दूसरे आला मंत्री पीयूष गोयल से क्या सुना? जनाब ने कहा कि आंकड़ों को देखने की आवश्यकता नहीं। अगर आइंस्टीन ने आंकड़ों और गणित की चिंता की होती तो वे कभी भी गुरुत्वाकर्षण के नियम खोज नहीं पाते!

और यह फर्क है दुनिया के विकसित, सभ्य, समझदार देशों की व्यवस्था और पिछड़े-गंवार देशों की व्यवस्था में। विकसित देश सत्य से बने हुए हैं और पिछड़े देश असत्य में जीते हैं। सत्य विकास की पहचान है। विकास का हौसला, उसकी हिम्मत है और जिंदादिली है तो झूठ अविकास का पर्याय है और पिछड़ेपन व मुगालतों में जीने का संस्कार है। जर्मनी की चांसलर ने यदि देश को बताया कि आर्थिकी ठीक नहीं है, मंदी की हकीकत है और कड़की में जीना होगा तो क्या वहां हड़कंप हुआ? क्या एंजेला मर्केल की लोकप्रियता का भट्ठा बैठ गया? क्या वे सत्ता से आउट हो जाएंगी?

नहीं, कतई नहीं। एंजेला मर्केल के सत्य बोलने से जर्मनी का भला हुआ और होगा। वहां का बाजार, वित्त मंत्रालय, विशेषज्ञ, व्यवस्था, नौकरशाही और नागरिक सभी अपने आपको मंदी के लिए तैयार करेंगे। यह बात चांसलर के भाषण से पहले जर्मनी के वित्त मंत्री के बजट भाषण में संतुलित बजट की एप्रोच की उनकी घोषणा से भी जाहिर हुई। जर्मनी के वित्त मंत्री और चांसलर ने वहीं किया, वहीं कहा जो वहां की आर्थिकी की, बाजार की, लोगों के काम-धंधों की हकीकत है। यदि अप्रैल-जून की तिमाही में जर्मनी की आर्थिकी 0.1 प्रतिशत सिकुड़ी और जुलाई-सितंबर की तिमाही में भी सिकुड़ने का अनुमान है तो सरकार ने जबरदस्ती, झूठा यह भरोसा नहीं बनाया कि सब ठीक है। उलटे दो टूक शब्दों में संसद से कहा कि सरकार की टैक्स कमाई घटेगी।

सचमुच जर्मनी के डीडब्ल्यू टीवी चैनल पर जब मैंने एंजेला मर्केल को बोलते सुना तो उनके चेहरे पर रत्ती भर झूठ, झिझक की भाव-भंगिमा नहीं थी। न कोई कुतर्क था।

जबकि भारत के हम लोग क्या सुन रहे हैं? सब ठीक है! आर्थिकी फुदकते हुए पांच ट्रिलियन डॉलर की होने वाली है! मंदी नहीं है, सिर्फ कुछ क्षेत्रों में समस्याएं हैं, जिसे ठीक कर दिया जाएगा! सवाल है मोदी सरकार की यह एप्रोच क्यों है? पहली वजह है कि 2016 में नोटबंदी के जिस फैसले ने काम-धंधों को ठप्प करने का भंवर बनाया, लोगों के उद्यम की ऊर्जा को बुझाया तो उसे बतौर गलती सरकार स्वीकार करना नहीं चाहती। मैंने नोटबंदी पर तुरंत लिखा था कि यह भारत के लोगों के मिजाज, धंधे की तासीर पर पाला है और इसका बुरा असर सालों तक देखने को मिलेगा। सो, कोई माने या न माने भारत की मंदी दुनिया की कसौटी पर इस समय सर्वाधिक गंभीर और गहरी है। इससे 2016 से 2019 और आगे के दो-चार साल लगातार आर्थिकी की भाप उड़ी और गायब मिलेगी। ऊपर से अब वैश्विक मंदी के लक्षण भी ऐसे बने हैं, जिसने भारत की आर्थिक दशा को करेला और नीम चढ़ा वाली स्थिति में पहुंचा दिया है।

पर भारत सरकार इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। केंद्र सरकार रिजर्व बैंक के रिजर्व को ले कर उसे खा रही है बावजूद इसके दावा है कि सब कुछ ठीक है। दावा कर रही है कि यह दुनिया की सबसे तेज रफ्तार जीडीपी है और आर्थिकी पांच ट्रिलियन की होने वाली है। इस पर फिर भक्त हिंदुओं का विश्वास है कि यदि लोग खरीद नहीं रहे हैं, उत्पादन घट रहा है, बेरोजगारी बढ़ रही है, सरकार की रेवेन्यू घट रही है तो कोई बात नहीं इससे पहाड़ नहीं टूट पड़ने वाला है! आखिर जीवन तो चल रहा है। गुजर तो हो रही है जबकि पाकिस्तान ज्यादा दिवालिया है और उससे हम लाख गुना बेहतर स्थिति में हैं। हमारी आर्थिक ताकत है, जिसके कारण भारत के आगे इस्लामी देश भी सलामी मार रहे हैं!

इस तरह का नैरेटिव, या ऐसे सोचना आपको कभी विकसित-सभ्य देशों में नहीं सुनाई देगा। पिछले दस सालों की हकीकत है कि अफ्रीका के छोटे-छोटे देशों, विएतनाम, कंपूचिया (यहां तक बांग्लादेश की कपड़ा-गारमेंट्स कहानी) के आगे भारत की कहानी बुरी तरह फीकी और बासी हो गई है। हमारी आबादी जरूर बढ़ रही है और बढ़ती आबादी की संख्या के साथ उस संख्या के न्यूनतम जीवन जीने के कुछ सौ रुपयों से आर्थिकी का कुल आकार, उसका आंकडा भले बढ़ा हुआ मिले लेकिन अफ्रीकी देशों और दक्षिण-पूर्व एशिया के छोटे-छोटे देशों की रियलिटी, उनके सच्चे विकास की गाथा ऐसे मुकाम की ओर है, जिसके आगे भारत की कहानी फर्जी और फेंकू बनती जा रही है।

सचमुच भारत की आर्थिकी के आंक़ड़े फर्जी और फूंके हुए पड़े हैं। नोट रखें इस हकीकत को कि मोदी सरकार के आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रह्मण्यम ने नौकरी छोड़ने के बाद निष्कर्ष दिया है कि 2011-12 से 2016-17 के बीच कुल घरेलू उत्पाद याकि जीडीपी 4.5 प्रतिशत बढ़ी जबकि सरकार दावा सात प्रतिशत का करती रही। आईआईएम अमदाबाद के दो विशेषज्ञों ने इकोनोमेट्रिक फार्मूलों में अध्ययन करके बताया है कि 2012-13 से 2016-17 के बीच जीडीपी में बढ़ोतरी पांच से साढ़े पांच प्रतिशत बैठती है न कि सरकार के दावे अनुसार सात प्रतिशत। भारत के आंकड़े, आर्थिकी का हिसाब कितना और कैसा अविश्वसनीय, फेंकू और फर्जी हो गया है इसको ले कर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी से ले कर अरविंद सुब्रह्मण्यम ने अलग-अलग वक्त पर जो कहा है उसके साथ वैश्विक पैमाने पर भी आंकड़ों पर शक स्थायी है। तभी आर्थिक जानकार हिसाब लगाए हुए हैं कि सरकार भले भारत में जीडीपी की विकास रफ्तार पांच प्रतिशत बताए लेकिन वह हकीकत में तीन से साढ़े चार प्रतिशत के बीच चल रही होगी। अपना मानना है कि आगे यह आंक़ड़ा सरकारी जुबानी भी जाहिर होने लगेगा।

गिरावट का यह सिलसिला नवंबर 2016 में नोटबंदी की घोषणा के बाद से सिलसिलेवार है। अब जब ठीकरा नोटबंदी से है तो मोदी सरकार कैसे माने कि आर्थिकी लगातार मंदी में ठहरी, ठिठकी और बरबादी की और है। अन्य शब्दों में सत्य मानना मतलब राजनीति की हार और आर्थिकी की जीत! हार्वर्ड के अर्थशास्त्रियों की जीत और हार्ड वर्क की हार!

इसलिए भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण काने कुतर्क से कहा कि लोग कारें इसलिए नहीं खरीद रहे हैं क्योंकि नई पीढ़ी टैक्सी से सफर करना पसंद करती है।

क्या दुनिया का याकि जर्मनी, अमेरिका, जापान, ब्रिटेन का कोई वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री इस तरह के कुतर्क करेगा? आर्थिक आबोहवा की सच्चाई को इस तरह झुठलाएगा?

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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