पत्रकारिता एक ऐसी समाजसेवा है जिसमें ज्ञान, बुद्धि व विवेक की प्राथमिकता के कारण बहुत सम्मान मिला है। लेकिन क्षमता में अभाववश हम शायद इसे अपने आप में संपूर्ण समाहित नहीं कर पाते और भ्रमवश अहंकार के वशीभूत होकर अपने को संपूर्ण कर्ता समझ बैठते हैं। यही कारण है कि पत्रकारिता में पत्रकारों का आपसी संगठन कमजोर होता है। आये दिन पत्रकारों पर हो रहे अन्यायपूर्ण मुकदमे इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। कितने ही पत्रकारों की हत्याएं हो चुकी हैं और आज भी हो रही हैं। लेकिन यह देश के लिए, समाज के लिए या कहें कि हमारे मीडिया संस्थानों के लिए कोई मुद्दा नहीं है। यह हमारी कलम का ही कसूर व अहम का गरूर ही है कि हम अपने आप को सदैव सुरक्षित रखने में समर्थ समझते हैं। हम लोकतांत्रिक रूप से आंदोलन नहीं करना चाहते। आखिर कब तक। समय आ गया है कि संगठित बने, संघर्ष करें।
अन्याय न्याय के आदर में अन्याय का शिकार होते रहेंगे। आप इस बात से भी भालीभांति परिचित ही हैं कि जब पत्रकार की निर्भिक कलम चलती है तो बड़े-बड़े सम्राज्य धराशाही हो जाते हैं। अब चाहे वह दलगत राजनीति हो, भ्रष्टाचार हो, महिलाओं पर किसी ज्यादाती का हो, किसी गरीब के न्याय का हो, बेरोजगारी का हो, महंगाई का हो, आर्थिक मंदी का हो, जातिगत का हो, कुरीतियों का हो, किसी भी धार्मिक का हो, संस्कृति-भाषा को लेकर हो ऐसे बहुत से कुछ अनछुए पहेलु हैं जब इन पर किसी पत्रकार की कलम चलती है तो अच्छे-अच्छे महारथियों को फैल साबित कर देती हैं। परंतु यह सब होता तभी है जब पत्रकार की कलम सच्चाई को मापने की दिशा में चल रही हो। परंतु आजकल पत्रकारिता चपल, चाटुकारिता के दौर में महिमामंडित हो रही है और इससे पार पाना बहुत मुश्किल है।
यह हम सबके लिए बहुत अच्छी बात है कि आज भी हमारे बीच ऐसे पत्रकारिता के पंडित विद्धमान हैं जो इसे जीवित किए हुए हैं, जिसके ज्वलंत उदाहरण आप सबके सामने हैं। आप इस बात से भी अवगत ही हैं कि पत्रकारिता देश का चैथ स्तम्भ होता है। आजादी से लेकर आज तक देश की तरक्की में इसका विशेष योगदान है। अन्यथा हमारे आकाओं ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी और आज भी आगे यही बात दस्तूर जारी है, जो एक सोच-विचार करने वाला बड़ा सवाल है। पत्रकारिता समाज में ऊर्जा भरने का एक आक्रामक साधन है। खतरनाक भी, उस्तरे की तरह बंदर के हाथ में पड़ गया तो खैर नहीं। इसीलिए कोशिश यही होनी चाहिए कि हाथ सही हों। कुशल और सधे हुए। पत्रकारिता सूचना देती है क्रांति भी देती है और दिशा भी परन्तु आज स्थिति कुछ जटिल सी हो गयी है। देश की आजादी में इसका अहम रोल रहा।
यह समझना आसान नहीं रह गया है कि पत्रकारिता की भूमिका क्या है ? विज्ञान और प्रोद्योगिकी का प्रभाव इस विधा पर भी बहुत पड़ा है। तलवार से भी ज्यादा इसकी धार तेज है। पत्रकारिता की धार जिस तरफ पड़ जाये तो बड़े-बड़ों का सफाया तय है। आजकल पत्रकारिता के लिए यह बीमारियों का समय है। बीमारी भी इतनी की किस-किस का ऑपरेशन करें। रोबोट की दुनिया में दक्ष हाथों की अनदेखी हो रही है। मुनाफाखोरी ने भी उलझाव पैदा किये हैं। सड़क से लेकर वायुमण्डल में जहर फैलाने का भी काम हो रहा है। एक पटरी पर बेचने वाले खोंमचे से लेकर डायमंड शोरूम तक सब जगह काला बाजारी जोरों पर है। अब चाहे वह शिक्षा की हो, खेल जगत की हो, सुरक्षा को लेकर हो सब गोल। पत्रकारिता ने समाज के अपने अक्स को ही तो खुद में उतारा और उभारा है आज तक।
एक स्थान पर बैठे-बैठे ही संसार की सैर भी पत्रकारिता ने ही दुनिया को करवाई और देश-विदेश की उफनती नब्ज से लेकर दहकते मुद्दों को जनता के सामने रखा। यह सरपाटे की कलम और उसके पहरेदारों ने पत्रकारिता के अब तक के इस सफर में सबसे खास भूमिका निभाई। आज के दौर में मीडिया, इंटरनेट के जरिए जिसकी बाजारीकरण हो रहा है। लेकिन अब उस कलम की जगह की-बोर्ड ने ले ली है। अखबारों की जगह कम्प्यूटर और मोबाइल स्क्रीन ने ले ली है, ट्विटर ने ली ली है, फेसबुक ने ली है, सोशल मीडिया ने ली है। भले ही कुछ न बदला हो। भले ही सब कुछ आगे बढ़ रहा हो… लेकिन इस दौड़ में अगर कुछ पीछे छूट गया है तो वह है। दम तोड़ती पत्रकार की कलम है। जिसने कभी इसी पत्रकारिता को जन्म दिया था। लेखन को जन्म दिया था। मॉडर्न वैश्वीकरण के इस हाईटेक युग में वह कलम आज प्रौढ़ हो गई है और दम तोड़ रही है।
– सुदेश वर्मा-
यह लेखक के निजी विचार है