कुछ दिन पहले एक दलित लड़के और एक ब्राह्मण लड़की ने आपस में शादी की। लड़की के पिता ने अपने प्रभाव का फायदा उठाते हुए कुछ लोगों को उनके पीछे लगा दिया। ऐसे मामलों में जबरन पकडक़र विच्छेद करा दिया जाता है और लडक़ी को बहला- फुसलाकर बयान बदलवा दिया जाता है। सजा अक्सर लडक़े को भुगतनी पड़ती है। दूसरी परिस्थिति यह भी होती है कि दोनों की हत्या करा दी जाती है। ज्यादातर मामलों में लडक़ा यदि दलित है तो हत्या उसी की कराई जाती है। कुछ अपवाद मामलों में ही दोनों पक्ष सहमत होते हैं और उनमें भी ज्यादातर ऐसे होते हैं जिनमें दलित लडक़ा ऊंचे पद पर होता है या रईस खानदान का होता है। जरूरी नहीं कि लडक़ा ऊंचे पद पर हो या घर अच्छा हो तो सहमति हो ही जाए, लेकिन ऐसे मामलों में सहमति की संभावना ज्यादा होती है सोशल मीडिया न होता तो बरेली के अजितेश और साक्षी का क्या होता, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। साक्षी का विडियो सोशल मीडिया पर आने के बाद वायरल हो गया, इसलिए दोनों सुरक्षित हो गए।
चुनाव में जब साक्षी के पिता वोट मांगने गए होंगे तब प्रचार में कहा होगा कि हम सभी हिंदू भाई हैं। जिस पार्टी से वे हैं, उसका सबसे बड़ा प्रचार तंत्र ही यही है कि हम सब हिंदू हैं। जैसे ही वोट और समर्थन लेने का मतलब पूरा हो जाता है, सारे फ र ब्राह्मण, ठाकुर, चमार, पासी, धोबी, खटीक, अहीर और गड़रिया हो जाते हैं। ऐसा न होता तो अजितेश और साक्षी की शादी में ऐतराज क्यों होता? बाप का काम तो शादी करवाना था, लेकिन गुंडे भेज दिए। पढ़े-लिखे लोगों, पत्रकार, नेता आदि से जब चर्चा की जाती है तो अधिकतर कहते हैं कि अब तो जात- पांत खत्म हो गई है। अगर उनकी जन्मपत्री निकाली जाए कि उन्होंने या उनके मां-बाप, संतान आदि ने शादी-विवाह जाति के बाहर किए हैं या अंदर, तो अपवाद को छोडक़र सब अगल-बगल झांक ने लगेंगे। लेकिन मानेंगें फिर भी नहीं। सब कुछ जान-सुन लेने के बाद भी यही कहेंगे कि जात-पांत बीते दिनों की बात है। भारत देश की यही विकट समस्या थी, है और रहेगी भी। कुछ भी उपाय कर लिया जाए, जब तक इस देश से जाति व्यवस्था खत्म नहीं होती, विकास या सख्यता के किसी चमत्कार की उम्मीद करना दिन में सपने देखने के बराबर है।
अंतरजातीय शादी के अनगिनत फायदे हैं। अगर घाटा है तो बस यही कि पिछड़ेपन और नफरत का त्याग करना होगा। पिछड़ापन, कूपमंडूकता, भेदभाव आदि का खात्मा अगर नुकसान के खाते में न डाला जाए तो जाति व्यवस्था का सामाजिक फायदा तो दूर-दूर तक नजर नहीं आता है। जो लोग जाति व्यवस्था में पैदा नहीं हुए हैं, उनसे बात की जाए तो उनको समझाना मुश्किल हो जाता है कि लोग ऐसा करते क्यों हैं? सभी के दो कान, दो आंख, दो हाथ और दो पांव हैं। सबकी शारीरिक संरचना एक ही समान है। फिर ऊंच-नीच, दलित-पिछड़ा की बात कैसे समझ में आएगी? अंतरजातीय शादी से संतानें स्वस्थ पैदा होती हैं। बीमारी कम होने के पूरे आसार होते हैं। इसका लाभ खेल आदि के क्षेत्रों में तो मिलेगा ही, इलाज पर खर्च भी कम होगा। संतानें सुंदर होगीं। प्रेम विवाह से जनसंख्या पर स्वत: नियंत्रण हो जाएगा। जिस लडक़ी में इतना दम है कि वह अपनी मर्जी से जाति के बाहर शादी कर रही है, स्वाभाविक है कि उसमें औरों की तुलना में स्वयं की आजादी का भाव ज्यादा होगा।
इसलिए वह सास-ससुर, पति और समाज के दबाव आदि के कारण बच्चे नहीं पैदा करेगी। प्रेम विवाह करने वाला लडक़ा भी सामान्य लडक़ों से अलग, आजाद ख्याल का होता है। स्वाभाविक है कि सामाजिक रीति-रिवाज का बंधन भी उस पर ज्यादा काम नहीं करेगा। वह भी नहीं चाहेगा कि ज्यादा बच्चे पैदा हों। बल्कि , कोशिश उसकी भी यही होगी कि बच्चे कम हों ताकि उनकी परवरिश ठीक -ठाक हो सके। बढ़ती आबादी की समस्या समाप्त। प्रेम-विवाह से राष्ट्रीय उत्पादन में बढ़ोतरी और विभिन्न क्षेत्रों में विकास की गति तेज हो सकेगी। जिस लडक़ी में प्रेम-विवाह करने की ताकत है, उसमें यह क्षमता भी होगी कि वह सड़ी-गली परंपराओं का त्याग करते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार, नौकरी आदि में स्वयं भागीदारी करे। ऐसी लड़कियां पति की कमाई पर निर्भर नहीं रहना चाहेंगी। पति भी परजीवी होकर जीने का इरादा नहीं कर सके गा, क्योंकि घरवालों की मर्जी के बिना शादी की है। उसके सामने भी आत्मनिर्भर बनने की चुनौती होगी।
जाहिर है, प्रेम विवाह से उपजा यह परिवार अन्य परिवारों की तुलना में ज्यादा तेजी से आगे बढ़ेगा। अपवादों को छोड़ दें तो हमारा समाज महिलाओं को बैठाकर खिलाता है, जबकि बहुत सी ऐसी महिलाएं हैं जो कामकाजी बनना चाहती हैं। महिलाओं की लेबर फोर्स में भागीदारी बहुत कम है। बल्कि और कम हुई है। पहले कभी 34 प्रतिशत हुआ करती थी, अब घटकर 22-23 प्रतिशत पर आ गई है। क्या ऐसा देश कभी विकसित हो सकता है जहां महिलाएं घर बैठी रहें? विकसित देशों में 90 प्रतिशत तक महिलाओं की लेबर फोर्स भागीदारी है। उन मामलों को देखकर मन क्षुब्ध होता है, जहां लड़कियां इंजीनियरिंग, एमबीए आदि करने के बाद शादी-विवाह करके घर तक सीमित हो जाती हैं। अंतरजातीय शादी से राजनीति में भी जातिवाद कम होगा। जब तक जाति व्यवस्था है, चाहे जितना भाषण दे दिया जाए, चुनाव जातीय भावना पर ही होंगे। जब जाति सरकार बनाने और बिगाडऩे में अहम भूमिका अदा करती है तो इसे जिंदा ही नहीं रखना होगा, साधना भी पड़ेगा। केवल विकास के नाम पर तो जीत नहीं होने वाली है। निष्कर्ष यह कि प्रेम-विवाह भी देश की तरक्की का एक अच्छा उपाय है।
उदित राज
(लेखक अनुसूचित जाति/जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, ये उनके निजी विचार हैं)