प्रियंका की राजनीति में दम तो है

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प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस की एकमात्र नेता हैं, जो लोकसभा चुनाव में पार्टी के बुरी तरह से हारने के बाद भी उतनी ही गंभीरता के साथ सक्रिय हैं, जितनी गंभीरता से चुनाव में सक्रिय थीं। बाकी सारे नेताओं के या तो हौसले टूटे हुए हैं या वे यह मान रहे हैं कि अभी सक्रिय होने का सही समय नहीं है।

सही समय नहीं होने की उनकी दो व्याख्या है। पहली तो यह कि अगला लोकसभा चुनाव 2024 में होना है तो अभी से क्यों परेशान होना और दूसरे कि अभी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के प्रति लोगों का ऐसा सद्भाव है कि अभी से सक्रिय होना खुद के लिए नुकसानदेह हो सकता है। अपनी जगह ये दोनों बातें सहीं हैं। पर इनके बावजूद प्रियंका पूरी शिद्दत से अपने काम में लगी हैं।

यह प्रियंका और राहुल गांधी के बीच का बुनियादी फर्क है, जिसकी वजह से भाजपा के लिए प्रियंका से लड़ना बहुत मुश्किल है। एक बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा ने ही प्रियंका को अपने मुकाबले में खड़ा किया है। भाजपा के नेता, उसकी समर्थक मीडिया और सोशल मीडिया में राहुल को पप्पू साबित करने का जो अभियान चला उसके बरक्स अपने आप यह भी प्रचार हुआ कि प्रियंका बेहतर नेता हैं। यह प्रचार खुद ही भाजपा ने किया है। भाजपा के लोगों ने राहुल की साख खराब करने के लिए प्रियंका को ऊंचे पायदान पर बैठाया। उन्होंने प्रियंका के करिश्माई व्यक्तित्व, इंदिरा गांधी से समानता, भाषण कला आदि का प्रचार किया। सो, अब उनका प्रभावी विरोध मुश्किल हो रहा है।

असल में भाजपा को लड़ना राहुल गांधी से था पर उसने प्रियंका के रूप में एक काल्पनिक प्रतिद्वंद्वी खड़ा किया। इस क्रम में उसने प्रियंका की छवि को बहुत बड़ा बना दिया। अब वे वास्तविक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर भाजपा के सामने खड़ी हैं। तभी भाजपा को समझ में नहीं आ रहा है कि वह उनसे कैसे लड़े। वे अच्छा भाषण देती हैं, कार्यकर्ताओं व आम लोगों से उनका जुड़ाव है, वे क्षेत्र में मौजूद रहती हैं और निजी तौर पर हर किस्म के विवाद से दूर हैं। भाजपा के पास उनके पति रॉबर्ट वाड्रा पर तो हमला कर रही है पर प्रियंका के खिलाफ उनके पास कहने को कुछ नहीं है। पति पर हो रहे हमले अंततः उनके प्रति सहानुभूति भी पैदा कर सकते हैं।

प्रियंका अपनी इस स्थिति को समझ रही हैं। इसलिए वे अपनी छवि के अनुरूप राजनीति कर रही हैं। इंदिरा गांधी की छवि एक बहादुर महिला की थी, जो किसी से डरती नहीं थीं और किसी भी स्थिति से घबराती नहीं थीं। इसी छवि के अनुरूप प्रियंका भी काम कर रही हैं। उनके सक्रिय राजनीति में आते ही उनके पति के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई तेज हो गई। इससे घबराने और छिपने की बजाय वे खुल कर अपने पति के साथ खड़ी हुईं और यहां तक कि उनको छोड़ने खुद प्रवर्तन निदेशालय के दफ्तर तक गईं। उन्होंने यह मैसेज दिया कि वे केंद्रीय एजेंसियों की जांच से डरती नहीं हैं। दूसरी मिसाल चुनाव नतीजों के बाद उनकी सक्रियता है। उनकी कमान में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ी थी। वे अमेठी और रायबरेली के साथ साथ पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान संभाले हुए थीं। पर उनकी कमान में राहुल गांधी भी हार गए और वे सिर्फ एक रायबरेली सीट जीता सकीं। इसके बावजूद घबरा कर या हार मान कर घर बैठने की बजाय वे ज्यादा ताकत के साथ सक्रिय हो गईं।

उनके और राहुल की राजनीति में एक बुनियादी फर्क यह भी है कि राहुल ने ज्यादातर समय सत्ता की राजनीति की। वे पहली बार 2004 में सांसद बने तो केंद्र में कांग्रेस की सरकार बन गई। अगले दस साल तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही। इन दस सालों में कांग्रेस संगठन के सारे अहम पदों पर रहने के बावजूद राहुल ने पार्टी को मजबूत करने का एक भी गंभीर प्रयास नहीं किया।

इसके उलट प्रियंका ने कांग्रेस की राजनीति इसके सबसे बुरे समय में शुरू की है। वे ऐसे समय में सक्रिय राजनीति में आईं जब कांग्रेस विपक्ष में है और बुरी तरह से बिखर कर हाशिए पर सिमटी है। वे अपने पति रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ चल रहे मुकदमों की वजह से निजी तौर पर भी मुश्किल समय से गुजर रही हैं और पहले ही चुनाव में पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन की वजह से भी उनके सामने चुनौती ज्यादा बड़ी है।

उन्होंने इस चुनौती को आगे बढ़ कर स्वीकार किया है। वे उत्तर प्रदेश के दौरे पर निकलने वाली हैं। राज्य में होने वाली हर छोटी-बड़ी घटना पर वे प्रतिक्रिया देती हैं। उनकी छवि ऐसी बनी हुई है कि मीडिया भी उनकी अनदेखी नहीं कर पा रही है। उनके खिलाफ मीडिया या सोशल मीडिया में कोई दुष्प्रचार भी नहीं चल पा रहा है। तभी वे हर मामले में राहुल के काउंटर पोलिटिक्स के रूप में दिख रही हैं। पिछले 15 साल में जितना निगेटिव नैरेटिव राहुल के लिए बना उतना ही पॉजिटिव नैरेटिव प्रियंका के लिए बन रहा है। वे राहुल का कंट्रास्ट बन कर उभर रही हैं। आम लोगों से लेकर कांग्रेस कार्यकर्ता और मीडिया हर जगह वे कनेक्टेड हैं। आगे नतीजे जो भी हों, उन पर अभी अटकल नहीं लगाई जा सकती पर फिलहाल प्रियंका से लड़ना भाजपा के लिए मुश्किल हो रहा है।

शशांक राय
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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