सचमुच शीला दीक्षित पीएम के लायक थी

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श्रीमती शीला दीक्षित बीमार थीं और काफी कमजोर हो गई थीं। लेकिन ऐसी संभावना नहीं थी कि वे अचानक हमारे बीच से महाप्रयाण कर जाएंगी। अखबारों और टीवी चैनलों ने जिस तरह की भाव-भीनी विदाई उन्हें दी है, बहुत कम नेताओं को दी जाती है। जब वे दिल्ली की पहली बार मुख्यमंत्री बनीं तब और अब भी जो नेता उनका डटकर विरोध करते रहे हैं, वे भी उन्हें भीगे हुए नेत्रों से अलविदा कह रहे हैं।

सभी मानते हैं कि आज दिल्ली का जो भव्य रुप है, उसका श्रेय शीलाजी को ही है। उन्हें मेट्रो रेल, सड़कों, पुलों, नई-नई बस्तियों और भव्य भवनों के निर्माण का श्रेय सभी दे रहे हैं। लेकिन मैं मानता हूं कि यदि शीलाजी को मौका मिलता तो वे भारत की उत्तम प्रधानमंत्री भी सिद्ध होतीं। मेरा उनसे लगभग चालीस साल का बहुत आत्मीय संबंध रहा है। उनकी कुछ व्यक्तिगत विशेषताएं मैं आपको बताना चाहता हूं। उनके आदरणीय ससुर उमाशंकरजी दीक्षित से मेरा पुराना परिचय था। जब मैं उनसे मिलने जाता था तो मुझे पता नहीं रहता था कि उनकी बहू कौन है लेकिन एक दिन शीलाजी से परिचय हुआ और वह मित्रता में बदल गया। एक-दूसरे के घर आना-जाना शुरु हो गया।

उनके निर्वाचन क्षेत्र कन्नौज में एक सभा में हम साथ-साथ बोले। वे अचार्य नरेंद्रदेव का नाम बोलने में जरा अटक गईं। मैंने धीरे से बता दिया। उन्होंने मुझे बार-बार धन्यवाद दिया। हम लोग फिर अक्सर मिलने लगे। वे प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मंत्रालय में राज्यमंत्री थीं। वे जब निजामुद्दीन में रहने लगीं तो वे अक्सर मुझे और उस्ताद अमजदअली खान को खाने पर साथ-साथ बुलातीं। वे साबुत करेले की सब्जी इतनी अच्छी बनाती थीं कि जब भी बुलातीं (मुख्यमंत्री बनने पर भी) तो कहतीं, ‘भाई, आपके लिए करेले की सब्जी तो मैं खुद ही बनाऊंगी।’

एक दिन पाकिस्तान के एक पूर्व प्रधानमंत्री मेरे घर आए। उसी समय शीलाजी का फोन आया। मैंने उन्हें बताया तो कहने लगीं, आज करेला बना रही हूं। आप आइए और उन्हें भी ले आइए। मैंने कहा कि ‘प्रोटोकॉल’ की अड़चन पड़ सकती है। तत्काल शीलाजी ने कहा कि मैं अभी आती हूं, खुद, उन्हें बुलाने के लिए। उन्हें अपने पद का घमंड बिल्कुल भी नहीं था। एक बार वे दिल्ली के लिए एक राजभाषा विधेयक ले आईं। मुझे लगा कि उसमें हिंदी को उचित स्थान नहीं दिया गया है। मैंने फोन किया तो बोलीं कि आप दो-तीन सांसदों को अपने साथ ले आइए और अफसरों को फटकार लगाइए।

हम गए और उन्होंने उस विधेयक को वापस लेकर बदल लिया। ऐसे कई काम हिंदी के लिए मैंने उन्हें जब भी बताए, उन्होंने सहर्ष कर दिए। उनमें सहजता और आत्मीयता इतनी थी कि यदि किसी सभा में वे मंच पर बैठी हों और मैं नीचे श्रोताओं में तो अक्सर मुझे वे आग्रहपूर्वक अपने साथ मंच पर बुला ले जातीं।

शीलाजी से कुछ ऐसा समीकरण बैठ गया था कि जब अर्जुनसिंहजी के साथ मिलकर वे कांग्रेस से अलग होने लगी थीं तो अनुशासन समिति के उपाध्यक्ष बलरामजी जाखड़ ने अन्य नेताओं के साथ शीलाजी को भी निकालने का फैसला कर लिया। मैंने प्रंधानमंत्री नरसिंहरावजी को बताया। शीलाजी ने मेरे कहने पर प्र.मं. को तुरंत एक फेक्स भेजा और उनका निष्कासन उस वक्त टल गया। वे जब केरल की राज्यपाल नियुक्त हुईं तो उन्होंने मुझे वहां कई बार बुलाया। मैं जा नहीं सका। पिछले दिनों मेरी पत्नी बीमार हुई तो चुनाव के दौरान भी उनके फोन आते रहे। मुझे अफसोस है कि इधर मैं उनसे मिल नहीं सका। मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि।

डॉ. देवप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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