भले आप सूर्यास्त के आदी हो गए हों और इसे रोज की जिन्दगी का अनिवार्य ही नहीं कई मामलों में उपयोगी हिस्सा भी मानने लगे हों, लेकिन अंधेरे और उजाले के बीच छिड़ी जंग से जो वाकिफ हैं वे जानते हैं कि दोपहर की चमचमाती धूर के बीच भी कैसे सूरज का चेहरा फीका पड़ने लगता है, जब उसे अपनी लागातार कम होती ताकत का अहसास होता है। दुनिया में उसकी रोशनी का डंका बज रहा होता है, पर उसे पता पड़ जाता है कि रात के खिलाफ छेड़ी गई यह लड़ाई वह हारने ही वाला है। हर बीतता हुआ पल उसकी कमजोर पड़ती धमक का एलान होता है और दूर कहीं अंधेरों के बीच बैठी रात के चेहरे की उम्मीद बढ़ाता जाता है।
सूरज भले पूरे दुनिया की तरफ से लड़ रहा हो, पर दुनिया अपने में मगन होती है। बल्कि, दुनिया का एक हिस्सा ऐसा होता है जो सूरज के कम होते पाप पर राहत ही महसूस करता है कि चलो आखिर लड़ाई तो बंद हुई। अंधेरे से अपनी दुश्मनी के चक्कर में सूरज ने हमारा जीना ही मुहाल कर दिया था। शान्ति की संभावना से उत्साहित दुनिया का यह हिस्सा जैसे सूरज की मौत का जश्न मनाने निकल पड़ता है। चिड़ियों का शोर बढ़ जाता है। बच्चे मैदान में खेलते दिखने लगते हैं। सूजर क्या बोले इन सब पर! जो लोग अन्यायपूर्ण शान्ति और इंसाफ की जंह के बीच अपना भला-बुरा नहीं पहचान पाते, उनसे क्या शिकायत !
ऐसे लोग अफसोस इस बात पर जताते हैं कि गांव, शहर, जंगल से अंधेरा भगाने की कोशिशों के बाद भी सूरज इनके दिलों-दिमाग में बैठ उस अंधेरे को दूर नहीं कर पाया जिसे रात अपनी निशानी के तौर पर छोड़ गई थी। ये समझते हैं कि अंधेरों से सूरज की कोई निजी दुश्मनी है। अपनी पूरी हस्ती जलाकर वह इनकी जिन्दगी रोशन कर रहा होता है पर ये इसी बात पर खुश दिखते हैं कि उसकी आंच कम हो रही है। सूरज की जगह हम-आप होते तो टूट जाते। छोड़ो इन नामाकूलों को। मरने दो अपनी मौत। मैं क्यों तिल-तिल जलूं इनके लिए, जब इन्हें ही अपनी नहीं पड़ी है। मगर साहब, दुनिया रोशन करना इतना ही आसान होता तो शायद हम-आप भी हिम्मत कर लेते। वह राह बड़ी कठिन है।
प्रणव प्रियदर्शी
लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं