कैलेंडर के हिसाब से दक्षिण पश्चिमी मॉनसून को आए एक महीना हो गया है। 29 मई को मॉनसून के केरल पहुंचने का समय तय है। हालांकि इस बार करीब आठ दिन की देरी से मॉनसून केरल पहुंचा था। देर से आने के बाद भी मॉनसून की रफ्तार दुरुस्त नहीं है। केरल पहुंचने के बाद मॉनसून ठहर गया। इसका नतीजा यह हुआ है कि जून में मॉनसून की बारिश में करीब 35 फीसदी की कमी रह गई।
मौसम की भविष्यवाणी करने वाली सरकारी और निजी संस्थाओं के मुताबिक जून में 16 सेंटीमीटर के करीब बारिश होनी चाहिए थी पर बारिश हुई दस फीसदी से थोड़ी ज्यादा। इसकी वजह से देश भर में तालाब, कुएं, नदियां सब सूख गई हैं। जहां अब तक पानी आ जाना चाहिए था वहां भी पानी का संकट गहरा हो गया है।
मौसम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 30 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेश में मॉनसून की बारिश औसत से कम रही है। सिर्फ दो ही राज्य हैं, जहां मॉनसून सामान्य रहा है। अब कहा जा रहा है कि अगले दस दिन में मॉनसून की रफ्तार बढ़ेगी और यह पूरे देश में पहुंच जाएगा। ध्यान रहे अब भी करीब दस राज्य ऐसे हैं, जहां मॉनसून नहीं पहुंचा है।
अगले दस दिन में पहुंचने की भविष्यवाणी कितनी सही होगी, यह नहीं कहा जा सकता है। आखिर जून महीने में भविष्यवाणी गलत साबित हो चुकी है। मौसम विभाग का कहना है कि जुलाई में सामान्य से 95 फीसदी और अगस्त में 99 फीसदी बारिश होगी। निजी एजेंसी स्काईमेट का कहना है कि जुलाई में 91 और अगस्त में 102 फीसदी बारिश होगी। असल में सारी भविष्यवाणियां इसलिए गलत हो रही हैं क्योंकि इस साल मॉनसून पर अल नीनो का प्रभाव है। इससे पहले 2009 में भी अल नीनो का प्रभाव था और तब जून की बारिश में करीब 50 फीसदी की कमी रही थी। 2014 में अल नीनो का प्रभाव नहीं था फिर भी मॉनसून की बारिश करीब 38 फीसदी कम हुई थी। इस बार जून में 34 फीसदी बारिश कम हुई है। पिछले एक सौ साल में यह पांचवां साल है, जब जून का महीना इतना सूखा गुजरा है। इसका असर खेती किसानी पर तो होगा कि आम लोगों के जीवन पर भी इसका भारी असर हो रहा है।
हिंदी महीने के हिसाब से आषाढ़ का आधा महीना बीत चुका है। यह महीना धान के बीज गिराए जाने का महीना होता है, जिससे सावन और भादो में धान की रोपनी होती है। पर पानी की कमी से कई राज्यों में यह काम प्रभावित हो रहा है। माना जा रहा है कि खरीफ की फसल पर इसका असर होगा। देश की अर्थव्यवस्था पहले से संकट के दौर से गुजर रही है और अगर खरीफ की फसल उम्मीद के मुताबिक नहीं हुई तो विकास दर में और कमी आएगी। महंगाई अलग बढ़ेगी।
आर्थिकी से इतर आम लोगों के जीवन में मॉनसून की बारिश का बड़ा असर हो रहा है। पीने के पानी का संकट कई राज्यों में बहुत गहरा गया है। देश भर के जलाशय और नदियां सूख रही हैं। जिन जलाशयों में मॉनसून की पहली बारिश से पानी भर जाता था वहां भी अभी मॉनसून की बारिश का इंतजार हो रहा है।
पानी की कमी से जूझने वाले पारंपरिक इलाकों की बात कौन करे, पानी से भरपूर रहने वाले हरियाली वाले प्रदेश भी पानी का संकट झेल रहे हैं। जिन राज्यों में पानी की ज्यादा खपत वाली फसलों की खेती होती है वहां संकट और गहरा है। वहां भूमिगत जल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। बारिश के पानी को सहेजने का कोई सिस्टम नहीं होने की वजह से ग्राउंड वाटर टेबल रिचार्ज नहीं हो पाता है।
मॉनसून में देरी के कारण पानी के पारंपरिक स्रोत सूख गए हैं। एक आकलन के मुताबिक देश भर में 20 लाख से ज्यादा तालाब और कुएं सूख गए हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में पिछले सात साल में 77 हजार कुओं के सूख जाने की सूचना है। इन पारंपरिक स्रोतों के साथ साथ हैंड पंप और ट्यूबवेल के स्रोत भी सूख रहे हैं। खेती के लिए पानी इतनी गहराई से खींचा जाने लगा है कि भूमिगत जल का स्तर लगातार नीचे जाता गया है। पंजाब और हरियाणा इसका सबसे ज्यादा शिकार हुए क्योंकि ट्यूबवेल का इस्तेमाल इन राज्यों में बहुत ज्यादा होता है। बिहार, मध्य प्रदेश जैसे राज्य भी इसका शिकार हो रहे हैं।
एक तरफ मॉनसून की बारिश कम हुई है और दूसरी ओर पानी सहेज कर नहीं रखने की प्रवृत्ति के कारण पानी के तमाम स्रोत सूख रहे हैं। यह दोतरफा संकट है। इससे लोगों, समुदायों और सरकारों सबको सबक लेने की जरूरत है। अगर मॉनसून की बारिश का पानी संभाल कर नहीं रखा गया तो हर साल यह संकट गहरा होता जाएगा। खेती किसानी के साथ साथ पीने के पानी का संकट भी बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर के ग्राम पंचायतों के प्रधानों को चिट्ठी लिखी और पानी सहेजने की सलाह दी। इस पर गंभीरता से अमल होना चाहिए। केंद्र और राज्यों की सरकारों को भी पहल करके नदियों, कुओं, तालाबों, झीलों को पुनर्जीवित करने का अभियान चलाना चाहिए औऱ साथ ही भूमिगत जल के दोहन को नियंत्रित करने के उपाय करने चाहिए।
अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं