बिचौलियों के कबालीवाद से मुक्ति का समय

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नहीं कांग्रेस की मुसीबत यह नहीं है कि राहुल गांधी उसके अध्यक्ष हैं। नहीं। कांग्रेस का हाल आज इसलिए ऐसा नहीं है कि उसके पहले पार्टा की कमान सोनिया गांधी, राजीव गांधी, इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के हाथे में रही। नहीं कांग्रेस की मुसीबत यह नहीं कि उसके कार्यकर्ता अब जमीन पर अब बचे नहीं है। कांग्रेस का हाल आज इसलिए ऐसा नहीं है कि गांव- देहात, कस्बों और शहरों में उसके झंडाबरदार रह ही नहीं गए हैं। लोक सभा चुनाव नतीजों के बाद ख़ासकर और यूं पिछले पांच बरस से फैलाई जा रही ये दोनों धारणाएं ग़लत हैं। राहुल गांधी आज भी कांग्रेस की सबसे बड़ी शक्ति हैं। सोनिया गांधी न होतीं तो पामुलपर्ति वेंकट नरसिंह राव और सीताराम केसरी तो कांग्रेस को कभी का ठिकाने लगा चुके होते। राजीव गांधी का राजनीतिक जन्म ऐसे हादसों का परिणाम था। जो किसी को भी तोड़ देता।

मगर ख़ुद हादसे का निवाला बनने तक वे कभी नहीं टूटे। वे कांग्रेस को सहज,सदाशयी फुहारों से लबरेज़ करने के लिए सदा याद किए जाएंगे। इंदिरा गांधी को कांग्रेस का बोझ बताने वालो की समझ पर मुझे तरस आता है और कांग्रेस को लेकर नेहरू पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी करने वालों के लिए तो चुल्लू भर पानी के अनगिनत पोखर धरती पर हमेशा मौजूद रहेंगे। यह भी सच से कोसों दूर है कि कांग्रेस पिछले पांच साल में दो-दो बार सिंहासन- बत्तीसी की सीढिय़ों पर इतनी बुरी तरह इसलिए लुढक़ी है कि अब उसके पास पैदल सैनिक हैं ही नहीं। वे हैं। इतने हैं कि निकल पड़ें तो, सच मानिए, आज भी जलजला ला दें। कांग्रेसी उसूलों के लिए सिर टिकाऊ तमन्ना रखने वालों का अकाल अभी नहीं पड़ा है। तो फिर दुबली कांग्रेसी गाय पर एक के बाद एक आ पड़े इन दो-दो आषाढ़ों की वजह क्या है। वजह है बिचौलियों का गिरोह।

मैं उनकी बात नहीं कर रहा, जो भले इरादों के साथ कांग्रेस के शीर्ष- नेतृत्व के साथ हर हाल में खड़े रहे हैं। मैं उनकी भी बात नहीं कर रहा, जो हर ऊंच-नीच में सच्चे मन से कांग्रेस के पैदल। सैनिकों की पीठ पर अपना हाथ रखे रहते हैं। मगर इन दोनों श्रेणियों में नजऱ आने वाले चेहरे हैं ही कितने, सो मैं उनकी बात कर रहा हूं जिन्होंने अपनी नृत्य-मुद्राओं की अदाकारी से बीच के उस रास्ते पर कब्ज़ा कर लिया है, जो सेनापति को अपने पैदल सैनिकों से जोड़ता है। कांग्रेस का आज का किस्सा बिचौलियों की गिरोहबंदी से हताहत पड़े सेनापति और अधमरे हो गए पैदल सैनिकों की कथा है। बिचौलियों की जौंक ने पिछले कुछ बरस में शिखर के रक्त-बीज जूस कर खुद को शक्ति-सम्पन्न बनाया है। इस जौंक ने पैदल-सेना की ऊर्जाए संसाधन और जज्बें को चूस कर खुद की शिराओं को गुलाबी बनाया है।

आज कांग्रेस की सिर से पैर तक लहुलुहान पड़ी देह बिचौलियों की इस जौंक की दुमुंही हवस का नतीजा है। कांग्रेस के पर्वत से लेकर ज़मीन तक रखा कोई भी अक्षय.पात्र इस जौंक की भूख के सामने बौना है। सोए इस बिचौलिया-मंडली से निजात पाए बिना कांग्रेस सियासी- घुंधलके की सुरंग से बाहर आ ही नहीं सकती। अपनी ज़मींदारी को दिन दूनी-रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ाने वाला यह गिरोह दो स्तर पर काबिज है। उसने राजनीतिक दालान की ज़्यादातर मसनदों को अपनी बाहों में जंकड़ लिया है। उसने सचिवालयीन रंगमहल की भी अधिक तर शैयाओं पर अपने पैर पसार लिए हैं। इस व्यवस्था की मदिरा दिल्ली से रिसते-रिसते कांग्रेस की प्रादेशिक टहनियों तक को भी पूरी तरह भिगो चुकी है। ऐसे में जो होना है, वही हो रहा है। बुर्ज पर बैठे खलीफा को भी बिचौलिया- मंडली अपने इशारों पर नचाने की जुगत भिड़ाती है और कुरुक्षेत्र में डटे रणबांकुरों को भी अपने लिए अंतिम बूंद तक निचोड़ने में लगी रहती है।

उसका मकसद कांग्रेस के सिर और पैर को खोखला कर अपना वोट भरना भर है। कांग्रेस के ऊष्मा पुंज के आसपास बने वलय में दो धाराओं के बीच का द्वंद्व आज का नहीं है। इस वलय में रजो-गुण और तमो-गुण के आचरण में टकराव का इतिहास पुराना है। मगर पिछले एकाध दशक में रज-तम के आनुपातिक असंतुलन से बन गए हाथापाई के माहौल ने कांग्रेस के भीतर अनगिनत सूराख़ बना दिए हैं। इसने कबीलावाद के एक नए व्याकरण की रचना कर डाली है। इस क शमकश की कीमत दो ही इकाइयां चुका रही हैं। एक ए नेहरू -गांधी परिवार और दूसरे, देश भर में पगडंडियों पर कांग्रेसी झंडा लेकर अब भी डटे लाखों लोग। बर्बादी तो इन्हीं की है। बाकी तो सब मस्तराम हैं। बस्ती में भले आग लगे, वे तो अपनी मस्ती में हैं। आपसी रिश्तों का स्वर्ण-काल जब होगा, रहा होगा।

आज तो दंभ और अहं की हालत यह है कि कांग्रेस के केंद्रीय और प्रादेशिक कार्यालयों के कमरों में बैठे ज्यादातर पदाधिकारी एक-दूसरे को जानते तक नहीं हैं। उनके बीच आपसी सौहार्द की पछुआ नहीं गहन खींचतान की लू बहती है। पैदल सैनिकों को तो छोडि़ए, वे एक-दूसरे को भी मांगने पर मिलने का वक्त महीनों नहीं देते हैं। जो मिलने का वक्त देने में जितना ज़्यादा वक्त लगाए, वह उतना ही बड़ा नेता! कुछ तो सचमुच व्यस्त होते होंगे, मगर ज़्यादातर खरबूजे तो खरबूजों को देख कर रंग बदल लेते हैं। कल ख़ुद नेताओं से मिलने का समय न मिल पाने पर झींकने वाले, अपनी काबिलियत से नहीं, राहुल गांधी की मेहरबानी से, किसी पद की चिंदी मिलते ही लोगों को मुलाकात के लिए लटकाने लगते हैं।

पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज-व्यूज इंडिया के के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं)

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