माया-अखिलेश की राह अलग

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यूपी में आखिरकार महागठबंधन टूट गया। वैसे तो 23 मई की शाह चुनाव के पूरे नतीजे आने के बाद सपा-बसपा के रिश्तों को लेकर सियासी हलकों में कयास लगना शुरु हो गथा था। बसपा नेत्री ने सोमवार को ही संकेत दे दिये थे कि आगे सपा से रिश्ते नहीं रहने वाले। मंगलवार इस टूट की जानकारी खुद मायावती ने संवाददाताओं को दी। यादवों के वोट बसपा उम्मीदवारों को ट्रांसफर ना करा पाने का सपा प्रमुख पर तोहमत जड़ा और यह भी ऐलान कर दिया कि यूपी में पार्टी उपचुनाव में अपने उम्मीदवार भी उतारेगी। हालांकि चुनाव में अकेले जाने के बावजूद सपा से रिश्ते बने रहने की बात दोहराई। इसका अर्थ साफ है कि उपचुनाव में मनमुताबिक सफलता नहीं मिलती तो दोबारा सपा की तरफ दोस्ती का हाथ बसपा बढ़ा सकती है। रिश्तों के लिए बसपा ने फिलहाल दरवाजा जरूर बंद कर दिया है लेकिन खिडक़ी खोल रखी है।

सपा प्रमुख ने भी बसपा नेत्री की तरह ही प्रतिक्रिया दी है, कहा है कि वह भी उपचुनाव में अकेले जाएंगे। जहां तक बसपा का सवाल है तो इस तरह के सियासी ब्रेक अप का लंबा इतिहास रहा है। भाजपा-कांग्रेस से लेकर अब सपा से हाल तक रहा सियासी रिश्ता इस बात का गवाह है कि बसपा नेत्री ने जिस किसी के साथ गठबंधन किया, उसके पीछे उनकी पहली फिक्र कामयाबी रही है। इसीलिए 2014 और 2017 में पार्टी की हुई दुर्गति के बाद उन्हें एहसास हो गया था कि सर्व समाज नारे का असर भाजपा के जबर्दस्त उभार के बाद फीका पड़ गया है। खुद के दलित वोट बैंक में भी सेंध लग चुकी है। आगे भी सूपड़ा साफ जैसे हालात पैदा हुए तो सिर्फ जाटवों की बदौलत कामयाबी नहीं मिल सकती। इसीलिए सपा से गठबंधन करके बसपा अपना खो चुके बेस वोट की भरपाई करना चाहती थी। कामयाब भी हुई। शून्य से 10 सीटों का 2019 में सफर बसपा के लिए मायने रखता है।

जबकि गठबंधन के बावजूद सपा की सीटों में इजाफा नहीं हुआ, बल्कि घर के तीन सदस्य हार गए। जिन सीटों पर सपा की हार हुई है वो सीटें यादव बाहुल्य हैं इसीलिए यह सवाल भी उठा कि दलितों के वोट शायद सपा उम्मीदवारों को ट्रांसफर नहीं हो पाए। इसके अलावा सपा की दुर्गति में प्रसपा की भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। पर सपा की तरफ से वोट ट्रांसफर ना हो पाना मुद्दा बनता कि इससे पहले बसपा ने ही सवाल उठा दिया। गठबंधन की सियासी बारीकियां जितना मुलायम सिंह यादव समझते रहे हैं, उतना शायद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव नहीं, यह महागठबंधन के नतीजों और उसके बाद हुई टूट से स्पष्ट हो गया है। हालांकि अखिलेश यादव ने भी अकेले पार्टी के लिए जमीन तैयार करने और वोटरों से सीधा संवाद स्थापित करने का मन बना लिया है। उन्हें यह भी एहसास होना चाहिए कि ट्वीटर से ग्रास रूट पालिटिक्स नहीं की जा सकती। बेशक मनी पॉवर और मसल पॉवर की जरूरत होती है पर ठोस कार्यक्रमों की भी जरूरत होती है। वैसे भी दो बराबर की ताकत वाले दलों के बीच गठबंधन प्राय: लम्बा नहीं चलता क्योंकि हितों का टक राव होने लगता है।

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