पहले की तरह कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गंधी को चुना गया। मल्लिकार्जुन खड़गे के चुनाव हार जाने के बाद लोकसभा में पार्टी के नेता पद का चुनाव कांग्रेस नेत्री को ही करना है। जिस तरह उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को निडर नेता बताते हुए उनके नेतृत्व की तारीफ की है, उससे साफ है कि पार्टी के भीतर 2019 में पार्टी की हार को लेकर पिछले कुछ दिनों से चले इस्तीफा प्रकरण का अघोषित तौर पर पटाक्षेप हो गया है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण है-हाल-फिलहाल अमेठी गंवाने की वजह सपा-बसपा के वोट ट्रासफर ना होने को बताया गया है। वैसे क वायद जारी है, अमेठी में बूथवार हुई हार को तलाशने का जिम्मा उन्हीं स्थानीय नेताओं को सौंपा गया है जिनकी सुस्ती भी परम्परागत गढ़ हाथ से चले जाने की वजह बनी। बहरहाल, इससे साफ हो गया है कि संगठन की कमान किसी गैर गांधी को सौंपे जाने की जो बात चल रही थी, जिसके लिए खुद राहुल गांधी ने पार्टी के नेताओं को तीन-चार महीने की डेड लाइन दी हुई है, उसका शनिवार को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक के बाद कोई मतलब नहीं रह जाता।
जाहिर है, जब खुद सोनिया गांधी ने राहुल के लिए बैटिंग की है, तब किसी बदलाव की गुंजाइश नहीं रह जाती। इस सबके बीच यह भी स्पष्ट हो गया है कि पार्टी अभी राहुल गांधी से ज्यादा सोनिया गांधी पर यकीन रखती है, जिनकी दूसरे विपक्षी दलों के बीच निर्विवाद छवि के कारण विश्वसनीयता है। कारण जो भी हो पर राहुल गांधी अभी वो विश्वसनीयता अर्जित नहीं कर पाए हैं। शायद उन्हें अभी और वक्त लगेगा। इसीलिए संन्यास की तरफ बढ़ चुकी सोनिया गांधी एक बार फिर फ्रंट फुट पर खेलने के लिए तैयार दिखती हैं। ऐसा इसलिए कि सामने नरेन्द्र मोदी जैसा कुशल वक्ता और संगठन से लेकर गठबंधन तक समय रहते सटीक फैसले लेने वाला शख्स है, जिसका सर्वाधिक समय इसी सब कामों में बीतता है। 2014 में मोदी का उभार तो यूपीए की एंटी इनक न्वैन्सी थी पर 2019 में पहले से भी ज्यादा सीटों के साथ दोहराव कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती के रूप में है। पर जिस तरह राहुल गांधी ने अपने सांसदों को यह कहकर उत्साहित करने का प्रयास किया है कि 52 सांसद भाजपा के लिए काफी हैं, एक -एक इंच लड़ाई लड़ेंगे।
उन्होंने आक्रामकता को और तीखा बनाने का संकेत दिया है। इससे साफ है कि 2014 में जो कांग्रेस का व्यवहार था, वही 2019 में सदन से लेकर सडक़ तक दिखेगा। राहुल ने मोदी राज की तुलना ब्रिटिश राज से की है। उन्हें लगता है कि देश के सभी संस्थान भाजपा के कब्जे में हैं। इसलिए संस्थाओं से बगैर उम्मीद के मोदी सरकार के खिलाफ अभियान चलाना होगा। राहुल के संसदीय दल की बैठक में दिए संबोधन से कांग्रेस की भावी रणनीति का एक खाका तो सामने है ही, जिससे पहले की तरह टकराव और सदन में गतिरोध के मामले बढ़ेंगे। अब ऐसी स्थिति में सरकार कितने नये कामों को अंजाम दे पाएगी, इस पर नजर रहेगी। जो देश की आर्थिक तस्वीर है और बेरोजगारी के डराने वाले आंकड़े सामने हैं उसे बदलने के लिए जाहिर है मोदी सरकार को लैंड रिफार्म और लेबर कानून के बड़े सुधार करने होंगे। लगता है, मोदी की दूसरी पारी में भी राहुल पहले जैसी भूमिका में होंगे।