अधिक सशक्त होंगे मोदी

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ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय मोदी को पहले की तुलना भी अधिक शसक्त बनाएगी, बल्कि इसके अतिरिक्त वे कारण भी है जिनका संबंध भाजपा या मोदी ने नहीं है। भाजपा के रणनतिकार यह समझ गए है कि विपक्ष कितने पानी में है और मतदाता का मनसा क्या है। कुछ प्रश्न ऐसे थे जो भारतीय मतदाताओं को स्वतंत्रता के पश्चात से ही परेशान कर रहे थे। मोदी ने अपने कार्य-व्यवहार से उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया। भारतीय चुनावी राजनीति में राष्ट्रवाद का मुद्दा पहली बार चर्चित हुआ। विपक्ष इसका विरोध रता दिखाई दिया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने सभाओं में उपस्थित भीड़ से यह प्रश्न करना नहीं भूलते थे कि आपको विकास चाहिए या राष्ट्रवाद। वे स्वयं को विकास के भावी पुरोधा के रूप में प्रस्तुत करते रहे लेकिन राष्ट्रवाद पर आपत्ति क्यों है।

यह स्पष्ट नहीं कर सके । सम्भवत: वे राष्ट्र के अर्थ तथा उसकी उपादेयता को समझ नहीं पा रहे थे। राष्ट्र एक अमूर्त सत्ता है जिसमें एक विशिष्ट संस्कृति, आध्यात्मिक मूल्य, महापुरुषों का जीवन, गौरवशाली इतिहास और प्रेरणादायक जीवन मूल्य सम्मिलित होते हैं। प्रत्येक सरकार का यह दायित्व होता है कि वे उसको संरक्षित करे। राष्ट्र एक धरोहर भी है। विपक्ष का राष्ट्रवाद का विरोध भारत को उसकी मूल अस्मिता से काट देना है। कोई भी प्रबुद्घ तथा जागरूक भारतीय नहीं चाहेगा कि कोई राष्ट्र की मूल चेतना को समाप्त करे। राष्ट्र के व्यापक अर्थों में उसका समग्र विकास भी निहित है। अत: यह प्रश्न ही बेमानी है कि विकास चाहिए या राष्ट्रवाद। विकास के विभिन्न आयाम राष्ट्र में स्वत्व ही समाहित होते हैं। विपक्ष ने अपनी नादानी से भाजपा को गौरवशाली विजय का अवश्य प्रदान किया। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत हुआ कि विपक्ष ही भाजपा का सबसे बड़ा प्रचारक है।

कश्मीर को लेकर कांग्रेस की घोषणाएं भी देश की जनता को नहीं पचीं। अधिक स्वायत्ता देने का आश्वासन, सुरक्षा बलों को हटाना, अनुच्छेद 370 को उसके मूल स्वरूप में लागू करना जिसमें वहां मुख्यमंत्री के स्थान पर प्रधानमंत्री का पद होता था, शेष भारत की जनता ऐसी घोषणाओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर की जनता ने भी कांग्रेस की इन घोषणाओं को अस्वीकार कर दिया। भाजपा अनुच्छेद 370 को हटाने की घोषणा करती है तो उसको इस राज्य से छह में से तीन आसन प्राप्त होते हैं, जबकि कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल सकी। असल में ये घोषणाएं कश्मीर के मतदाता को लुभाने से अधिक शेष भारत के अल्पसंगयकों को यह संदेश देना था कि कांग्रेस उनकी पृथक पहचान को राजनीतिक स्तर पर स्वीकार करती है। इसके विपरीत अनुच्छेद 370 का प्रबल विरोध करने वाली भाजपा को परम्रागत मतदाता शक्ति के अतिरिक्त जम्मू संभाग तथा लेह के शिया मुस्लिमों तथा मुस्लिम गुर्जरों का पूरा समर्थन मिला।

कांग्रेस घाटी में आतंकवाद तथा मजहबी जड़वाद को देखकर यह अनुमान नहीं लगा सकी कि ऐसा वर्ग अधिक सीमित है। सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर की स्थिति घाटी के चार जनपदों जैसी नहीं है। इन जनपदों में भी मुस्लिम गुर्जर पृथक तावादियों के साथ नहीं है। बारामुला के सीमावर्ती क्षेत्र के रहने वाले पशुपालकों के बच्चों ने सुरक्षा बलों में भर्ती के लिए सर्वाधिक रूचि दिखाई थी। भाजपा को मिले व्यापक जनादेश के पश्चात अलगावादी नेताओं के सुर भी बदल गए हैं। हुरिर्यत नेता मीर वाइज का कहना है कि जिस प्रकार मोदी को जनादेश प्राप्त हुआ है, वे ही कश्मीर समस्या का समाधान कर सक ते हैं। मीर वाइज इस सत्य को जानते हैं कि मोदी किसी भी मूल्य पर उनकी पृथक तावादी मांगों को पूर्ण नहीं करेगे बल्कि अनुच्छेद 370 को भी अधिक समय तक स्वीकार नहीं करेंगे। विपक्ष यह ही समझता रहा कि तुष्टठीकरण तथा जातिवाद का जहर फैलाकर चुनावी वैतरणी को पार किया जा सकता है।

लेकिन अब मतदाता का मानस परिवर्तित हो रहा, वह पहले की तुलना में अधिक गम्भीर तथा देश के प्रति जिम्मेदारी समझने लगा है। देश की युवा पीढ़ी जातिवाद के तटबंधनों से मुक्त होना चाहती है, यह लोक सभा चुनावों में दिखाई भी दे गया। पहले की तुलना में कि सी सत्तासीन दल को 25 प्रतिशत अतिरिक्त मत मिलें, साधारण घटना नहीं है। भाजपा इस बात से संतुष्ट प्रतीत हो रही है कि उसकी राष्ट्रवाद तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नीति रही है। अब दूसरी पारी में मोदी पहले की तुलना में अधिक मुखर हो कर निर्णय लेगी और पूर्व जनसंघ की कार्ययोजनाओं को लागू करने का प्रयास करेगी। जिस प्रकार से मंत्रिमंडल का गठन किया गया है, उससे यह साफ हो जाता है। सारे चेहरे वे ही हैं जो कहीं न कहीं संघ की वैचारिकी के समर्थक हैं। पिछली सरकार के तीन दशक से अधिक मंत्रियों को सत्ता गलियारे से बाहर कर दिया गया।

उमा भारती तथा सुरेश प्रभु जैसे लोगों को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला। उमा भारती हिंदुत्व की वैचारिकी का प्रतीक हैं। लेकिन वे कुशल प्रबंधक नहीं हैं। जहां तक सुरेश प्रभु का प्रश्न है, वे मोदी के मित्र हैं। शिवसेना से भाजपा में लाया गया। उनको रेल जैसा महत्वूपर्ण विभाग दिया गया। प्रभु के कार्यकाल में रेल सेवा में काफी सुधार भी हुआ, स्वच्छता को प्राथमिकता प्रदान की गई। कमी यह रह गई कि वे तीर्थओं को जोडऩ़े की प्रक्रिया में असफल रहे इसलिए वे मंत्री पद पर नहीं हैं। मोदी जानते हैं कि विपक्ष में बिखराव है। उन्हें यह भी ज्ञात है कि इनके पास राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए वैचारिक शक्ति नहीं है। इसका प्रमाण उत्तर प्रदेश में देखने को मिला। समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी में केवल जातीय मतदाताओं का एक -दूसरे के पक्ष में वोट अंतरण के लिए गठबंधन हुआ था।

मायावती यह मानती है कि प्रदेश का 21 प्रतिशत वंचित समाज का वोट उनका अपना है। साथ ही मुस्लिम मतदाता के लिए भी वे प्रथम वरीयता में है। कुछ इसी प्रकार का भ्रम समाजवादी पार्टी को भी रहा। यदुवंशी समाज का शत-प्रतिशत वोट स्वयं का माना गया। यह अनुमान भी सन 2014 के चुनाव परिणामों पर आधारित था। चाहे वंचित समाज हो या यादव समाज को एक वर्ग ऐसा भी रहा तो परम्परागत छवि के विपरीत भाजपा के पक्ष में खड़ा किया। यह स्थिति देश में हर स्थान पर दिखाई दी। आज मोदी एक महानायक के रूप में उभर कर सामने आएं हैं। विपक्ष की गलत रणनीति ने उनको पहले से अधिक वोट शक्ति प्रदान की। अब सवाल यह नहीं है कि मोदी हिंदुत्व की कार्ययोजना पर चलेंगे या नहीं, चलना तो निश्चित है पर सवाल यह पैदा होता है कि वे इस कार्ययोजना पर कहां तक जाएंगें। मोदी चाहेंगे कि हिंदुत्व की अवधारणा पर विपक्ष हाय-तौबा मचाएं। यह हाय-तौबा ही उनको 2024 में विजय श्री प्रदान क राएगा।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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