ईश्व के दरबार में क्या सब बराबर नहीं होते ? अगर नहीं होते तो फिर ईश्वर का क्या अर्थ ? अगर होते हैं तो फिर केदारनाथ में जो कुछ देखने को मिला क्या उसे साधना कहा जा सकता है? जिस मोदी निर्मित गुफा में पीएम नरेंद्र मोदी ने साधना की, हम उसमें मौजूद सुविधाओं पर नहीं जाना चाहते, ना ही हम इस पर जाना चाहते कि पीएम मोदी ने केदारनाथ का सारा कार्यक्रम मीडिया पर छाये रहने के लिए तय किया, आखिरी चरण में फायदा उठाने के लिए तय किया। बस जेहन में ये सवाल उठ रहे हैं कि क्या अब भगवान की भक्ति इस तरह हुआ करेगी? कौन ये मान सकता है कि मोदी ने एक आम भक्त की तरह खालिस धार्मिक यात्रा की? गुफा में एक भक्त की तरह 17 घंटे तपस्या की? के दारनाथ से लेकर बद्रीनाथ तक क्या वो आम भक्त से ज्यादा पीएम नजर नहीं आ रहे थे? कोई माने या ना माने लेकिन कड़वा सच यही है कि वो बाबा के दरबार में भी एक बादशाह सरीखे दिख भी रहे थे, और देश को दिखा भी रहे थे।
वो बादशाह जिसके आने से पहले सारे बंदोबस्त कर लिए जाते हैं। वो बादशाह जिसके लिए बाबा के दरबार में लाल कालीन तक बिछ जाते हैं। बाबा के लिए बिछें तो समझ में आता है लेकिन किसी इंसान के लिए ये सब हो-गले कैसे उतर सकता है? वैसे मुगलकाल का इतिहास इस बात का गवाह है कि अकबर जैसा बादशाह भी नंगे पैर मां वैष्णो देवी के दरबार तक गया था। तो फिर जनसेवक असली बादशाहों को भी मात क्यों दे रहे हैं? इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के तकरीबन हर कोने में सत्ता के गलियारों के संतरी से लेकर मंत्री तक मंदिरों में लाइन तोडक़र आगे चले जाते हैं लेकिन पूजा के समय वो भी आम ही नजर आते हैं लेक न पीएम मोदी की पूजा अर्चना भी शाही। आज तक क्या कभी किसी ने सुना या देखा है कि बाबा शिव के दर्शन के लिए जा रहे किसी भक्त के लिए लाल कालीन बिछाया गया हो? क्या ये बाबा के लिए समान था या फिर मोदी के लिए?
लाख टके का सवाल यही है कि क्या बाबा के दरबार में लाल कालीन से चलकर किसी शख्स का जाना केदारनाथ का अपमान नहीं है? पीएम के लिए सुरक्षा तामझाम होने चाहिए लेकिन जब आप ईश्वर को मानते हैं, दिल से मानते हैं और उस पर भरोसा करते हैं, जानते हैं कि भगवान के दरबार में कुछ अनहोनी नहीं होगी तो फिर केदारनाथ मंदिर से रुद्र गुफा तक कालीन की क्या जरूरत थी? ये भारत के संविधान के किस पैरा में लिखा है कि मंदिरों में जाने वाले वीवीआईपी के चलने के लिए खजाने से लाल कालीन पर जनता का पैसा लुटाया जाए? बचपन से ही हिंदू धर्म में बताया भी जाता है और मां-बाप की ओर से सिखाया भी जाता है कि भजन और भोजन हमेशा एकांत में करना चाहिए। प्रधानमंत्री अगर भक्ति के लिए केदारनाथ की शरण में गए थे तो क्या ये उनका नितांत व्यक्तिगत दौरा नहीं होना चाहिए था? पूजा-पाठ से लेकर साधना तक अगर आगे- पीछे मीडिया के कैमरे और रिपोर्टर हर समय मंडराते रहे तो फिर कैसे मान लिया जाए कि सब कुछ एकाकी था?
क्या ये देश की जनता को दिखाने के लिए नहीं था? शक्ति के सहारे भक्ति का लाइव टेलीकास्ट वो भी आखिरी चरण के रण के समय? इसे धार्मिक कैसे मान लिया जाए? दिल चाहकर भी इसे धार्मिक दौरा मानने को तैयार नहीं। राजपाट फिर से हासिल करने के वास्ते प्रधानमंत्री इस रास्ते को अपनाएं तो ये राजनीति की रणनीति हो सकती है लेकिन अफसोस की बात तो ये है कि मीडिया ने तो सारी मर्यादा ही धूल में मिला दी हैं। क्या देश में बाकी और कोई मसला नहीं रह गया था, जो सारा मीडिया केदारनाथ और बद्रीनाथ में डेरा डालकर बैठ गया। हाल के तूफान से तबाह ओडिशा की जनता का दुख-दर्द देखने के लिए जिस मीडिया को फुर्सत ना मिलती हो, महाराष्ट्र और देश के बाकी हिस्सों में दो बूंद पानी की जद्दोजहद में घड़ा सिर पर रखक र धक्के खाती महिलाएं और बच्चे मीडिया को दिखाई ना देते हों वो सारा मीडिया के दारनाथ का कोई एंगिल नहीं छोडऩा चाहता था,आखिर क्यों?
क्या केवल पीएम की वजह से? क्या मोदी के नाम की वजह से? या फिर सत्ताधारी की चाह की वजह से? अगर उनकी चाह ना होती तो फिर पीएम की तामझाम में लगी टीम क्या मीडिया को के दारनाथ की राह नापने देती? संविधान, कानून के लिहाज से इसे भले ही गलत ना माना जाए या ठहराया जाए, टीएमसी की शिकायत के बावजूद इसे चाहे आचार संहिता का उल्लंघन भी ना माना जाए लेकि न क्या नैतिकता की कसौटी पर ये सब सही ठहराया जा सक ता है? आखिरी सवाल क्या तपस्या इसी तर होती हैं? क्या ऋषि-मुनि ऐसे ही तप करते थे? वो तो हमनें नहीं देखा लेकिन लोक तंत्र के बादशाहों की शाही तपस्या जरूर देख ली। बनारस में मोदी के हाथों शिव की मुक्ति भी देख ली और अब कालीन से शिव की अराधना व साधना भी। वैसे अब इस गुफा के भी भाव बढ़ जाएंगे। इसमें ठहरने के लिए लाइन लगेगी। अच्छा है, पहाड़ पर पर्यटन और बढ़ेगा। बम-बम भोले।