मान्यताओं और परम्पराओं में लिपटी राजनीति

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महाविविधताओं के देश भारत के अनेक हिस्सों में, राजनीति में जीत हासिल करने का विश्वास उगाने के लिए तरह-तरह के प्रचलन हैं। यह प्रयोग बहुत सफल हैं। दो रुपए किलो चावल, बेटी की शादी में मंगल सूत्र, प्रेशर कुकर, बोतल या फिर नकद ऐसे पारंपरिक रास्ते हैं जिन पर चलकर चुनाव लडऩे वाले आम लोगों का विश्वास हासिल करते हैं, उनका आत्मविश्वास बढ़ जाता है, उन्हें लगने लगता है कि यह चुनाव हम ही जीतेंगे। माहौल के मुताबिक अनेक बार ऐसा होता है कि मुंह ज़बानी वायदा कि या जाता है, सद्भावना भेंट भी ले ली जाती है लेकिन मुहर लगाते लगाते मन बदल जाता है।

हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में युगों से ‘लोटा नमक ’ की रीति चल रही है जो जि़ला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र व जि़ला शिमला के दुर्गम इलाकों में, लोक मान्यताओं के रूप में आज भी विद्यमान हैं। बताते है लोटा नमक परंपरा के तहत सामूहिक रूप से कसम खाई जाती है कि हम आपको समर्थन देंगे। पंचायत, विधान सभा या लोक सभा के आम चुनाव में इस परंपरा का सहारा लिया जाता रहा है। स्थानीय देवी देवताओं को साक्षी मानते हुए सदियों से यह रीत चल रही है यद्यपि शिक्षा और जागरू क ता के साथ इसका इसका प्रचलन धीरे धीरे कम हो रहा है। परंपरा के निमित, मान लीजिए यदि कि सी गाँव के लोग अमुक नेता से नाराज़ हैं तो चुनाव के दौरान सुलह क रवाकर पुन: गांववालों का विश्वास जीतने का एक बढिय़ा रास्ता लोटा नमक (लोटा नूण) है।

नेता उस गांव में जाकर बातचीत के बाद लोटा नमक परंपरा के माध्यम से रूठे लोगों को मनाने में कामयाब होते देखे गए हैं। वोट नेता की झोली में पड़े इसके लिए गांव वालों से, परिवारों से स्थानीय देवता के नाम पर कसमें ली जाती हैं। इस अनोखी रिवायत में बिना खर्च किए वोट बैंक पक्का हो जाता है। जो नेता पहले गाँव पहुँच कर इस परंपरा के बहाने विश्वास हासिल कर ले, गाँव वाले उस के साथ बांध जाते हैं। लोटा नूण करने का तरीका सरल है। एक लोटे में पानी डालकर उसमें नमक दाल दिया जाता है। कसम लेने के लिए स्थानीय निवासी, देवता को साक्षी मानकर, सामूहिक रूप से एकत्र होकर बारी-बारी लोटे को हाथ लगाकर कसम लेते हैं।

यह कहते हैं कि अगर मैं अपनी क सम तोड़ूँ तो देवता मुझे सज़ा दें। एक बार कसम खा ली फिर कायम रहती है। नेता ऐसी पहल करते ही विश्वस्त हो जाते हैं। माना जाता है छोटे चुनाव में यह ज़्यादा कारगर है। पंचायती राज चुनाव में एक वोट भी कीमती होती है तभी परिवारों पर ध्यान दिया जाता है। लोटा नूण हो गया तो समझिए दूसरे व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होता है। बुजुर्ग बताते हैं कि पहले देवी देवताओं में आस्था ज़्यादा रखते थे, बुज़ुर्गों की बात मानते थे। यह परंपरा कि सी का नमक खाने के बाद उसे निभाना जैसी ही है। देव दोष के डरते थे लेकि न सामाजिक बदलावों के कारण अब लोग डरते नहीं, वादा खिलाफी भी करते हैं। वैसे भी समाज में हर तरह के भरोसे की गारंटी क म होती जा रही है तो परह्यपराएँ भी तो विकास के सामने टूटेंगी ही।

संतोष उत्सुक
(लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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