सावरकर पर सियासी वार

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महापुरुष तो सबके होते है, लेकिन यह सियासत उन्हें भी बांट देती है। यह बंटवारा जाति, धर्म या फिर विचारधारा के नाम पर देखना इस दौर की नियति है। शायद इसीलिए सोच का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। इसी संकीर्ण मानसिकता का परिचय राजस्थान सरकार ने दिया है। राज्य की सत्ता कांग्रेस के हाथ में है। इसलिए वीर सावरकर के बारे में कोर्स में उन्हें चार बार अंग्रेजों से माफी मांगने वाला बताया है जबकि पिछली भाजपा सरकार में उन्हें महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता संग्राम का योद्धा बताया गया था। दसवीं कक्षा के कोर्स में इस परिवर्तन के खिलाफ भाजपा गहलोत सरकार को घेरने की तैयारी में है। तो वीर सावरकार का ऐतिहासिक महत्व पार्टियां अपनी सुविधानुसार तय कर रही है। ना जाने यह पार्टीबंदी कहां जाकर रूकेगी।

बच्चों को अपने समय के नायकों के योगदान से परिचित कराने के साथ ही प्रेरित करने का काम किया जाता है इसीलिए इतिहास पुरूषों की जीवनी उन्हें पढ़ाई जाती है। निश्चित तौर पर यह पहल दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन इस तरह की सियासी पहल तकरीबन सभी दलों में देखी जा सकती है। वैसे इस तरह की कोशिश से एक बात तो पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि ऐसी कोई भी पहल भले ही राजनीतिक विचारधारा के नाम पर हो, लेकिन उसे सही अर्थों में राजनीतिक नहीं कहा जा सकता। जैसे शरीर के निर्माण में तरह-तरह के विषाणुओं की अपनी उपयोगिता होती है, उसमें अलहदा-सा कुछ नहीं होता, सब मिला-जुला होता है, वैसे ही देश के निर्माण में भी मिली-जुली विचारधारा की भूमिका होती है। किसी एक को खारिज करने का सीधा अर्थ हुआ कि एक विशेष हिस्से को उपेक्षित कर दिया गया।

यही उपेक्षा कहीं न कहीं असंतोष और पूर्वाग्रह को जन्म देती है। कांग्रेस पर इसी तरह का आरोप लगता है। बीते पांच वर्षों में भाजपा ने केन्द्र की सत्ता में आने के बाद से विचारधारा के नाम पर पूर्ववर्ती सरकार के नायकों को महत्वहीन साबित करने की दिशा में कई उलटफेर किये, जिसका नतीजा है गहलोत सरकार की मौजूदा पहल। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हैं तो जाहिर है एक आजाद देश की सरकार में संस्थाओं के रूप में जो कुछ भी वजूद में आया उस पर पंडित नेहरू के सोच की छाप रही। दशकों से भारत उसी खास सोच में ढलते हुए आगे बढ़ा और कई मामलों में छाप भी छोड़ी, इससे इनकार नहीं कि या जा सकता। सिर्फ नाम बदलने से वाकई कुछ बदल रहा होता तो योजना आयोग की दोबारा चर्चा न होती।

मोदी के कार्यकाल में योजना आयोग, नीति आयोग तो हो गया लेकिन उससे बदलाव भी हुआ, अभी यह कहा नहीं जा सकता। हालांकि बदलाव एक सतत प्रक्रिया है, वो चाहे-अनचाहे होता रहता है पर कोई अतीत को बदलने की चेष्टा करे तो हास्यास्पद ही कहलाएगा। जैसे नेहरू युग और उस दौर के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व वैदेशिक योगदान को नहीं नकारा जा सकता। उस दौर के गुटनिरपेक्ष आंदोलन की उपयोगिता को खारिज नहीं किया जा सकता। अलग-अलग देशों के समूह में सदस्यता की कवायद और उसकी उपयोगिता कहीं न कहीं गुटनिरपेक्ष जैसी कोशिश ही तो है। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर। वैसे भी इतिहास तो इतिहास है उससे सिर्फ सीखा जा सकता है।

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