तीस्ता, एनआरसी और स्थिरता

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सबसे बड़े गणतंत्र के चुनाव पर समूचे विश्व की नजरें रहना स्वाभाविक है। इस चुनाव से पहले भारत-पाकिस्तान के बीच ऐसी घटनाएं घटी जो दोनों को भीषण अनिश्चितता की ओर धकेल सकती थी। पुलवामा हमला, एयरस्ट्राइक से शुरू हुआ यह दौर पायलट अभिनंदन की वापसी से खत्म हुआ और उपमहाद्वीप के निवासी के रूप में बांग्लादेश ने भी राहत महसूस की। भारत सिर्फ पड़ोसी नहीं, जड़े साझा करने वाला मित्र देश भी है। बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई में भारत ने एक करोड़ शरणार्थियों को आश्रय दिया था। 2009 में आवामी लीग सरकार बनने के बाद भारत के साथ बांग्लादेश के संबंध शिकर पर पहुंच गए थे।

लेकिन पड़ोसियों में दृंद्व हमेशा रहता है। 2011 में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ढाका यात्रा के दौरान तीस्ता समझौते पर सहमति बनने के बावजूद हस्ताक्षर नहीं हो सके। भारत के चुनानव में एनआरसी मुद्दा जिस तरह सामने आया है, वह बांग्लादेसी के लिए असुविधाजनक है। पिछले साल असम में चालीस लाख लोगों की नागरिकता छीन ली गई। ये लोग पचास साल से वहां रह रहे थे। भाजपा सरकार नागरिकता कानून बदलकर पाकिस्तान, अफगान और बांग्लादेश से आने वाले अल्पसंख्यकों के लिए संसद में बिल लाई थी, लेकिन यह बिल अटका हुआ है।

बांग्लादेश में यू भारत के प्राय सभी चैलन देखे जाते हैं, लेकिन भारत ने बहुत कम बांग्लादेशी चैनलों की अनुमति दे रखी है। लोकसभा चुनाव में कौन जीतेगा, कौन हारेगा, यह भारत ही यह करेगा। लेकिन बांग्लादेश के लोग यही चाहते है कि जो भी सरकार बने वह दोस्ती को और मजबूत बनाए। हैरानी की बाय ये भी है कि अब इस देश में भी पाकिस्तान के प्रति हमदर्दी रखने वाले की संख्या बढ़ती जा रही है। ये जानते हुए भी कि पाकिस्तान ने यहां की जनता के साथ किया क्या था? कट्टर इस्लामिक चेहरों की वजह से पाकिसतान फिर यहां अपनी घुसपैठ बढ़ा रहा है जो इस देश और साथ ही भारत के लिए भी चिंता का कारण है। देखना यही है कि अगली सरकार भारत में किसी बनती है और वो कैसा व्यवहार यहां करती है?

सोहराब हसन
लेखक बंग पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार हैं

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