सेवा के बिना नहीं मिलता मेवा

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आज जैसे ही सेवक जी हमारे घर के आगे से निकले तो तोताराम ने उन्हें पहचान लिया और ऊंची आवाज में बोला-चौकीदार जी, नमस्कार। सेवक जी चौंके, बोले मास्टर जी, आप तो हमें भाई साबह ही कहें क्योंकि अब इस चौकीदारी का कुछ पता नहीं। हमने कहा-लेकिन भाई साहब, आपने तो खुद ही अपने नाम से पहले ‘चौकीदार’ लगाया था।

हमारे इलाके में एक सेवक जी रहते हैं। सेवक जी इसलिए कि हमने उन्हें कभी सामान्य मनुष्यों वाला कोई काम करते नहीं देखा। सामान्य आदमी को तो अपनी फटी हुई सीने से ही फुर्सत नहीं मिलती तो वह सेवा जैसा विशिष्ट काम कब करे? लेकिन यह अवश्य सेवा जैसा कोई विशिष्ट काम ही करते होंगे क्योंकि इस उम्र में भी इनके स्वास्थ्य और चेहरे की चमक को देखक र यही सिद्ध होता है। ऐसी चमक मेवे के बिना नहीं आ सक ती और मेवा सेवा के बिना नहीं मिल सक ता। इनका सारा परिवार और इनके रिश्ते के सभी लोग सेवा में ही लगे हैं। कोई गौ सेवा करता है तो कोई समाज की सेवा। कोई अनाथों की सेवा करता है तो कोई अक्षय क लेवा चलाता है। जिसे कुछ नहीं मिलता वह रामलीला क रवाता है। पता नहीं, कितना चंदा आता है और कि तना लंका में दहन हो जाता है।

आज जैसे ही सेवक जी हमारे घर के आगे से निकले तो तोताराम ने उन्हें पहचान लिया और ऊँची आवाज़ में बोला- चौकीदार जी, नमस्कार। सेवक जी चौंके , बोले- मास्टर जी, आप तो हमें भाई साहब ही क हें क्योंकि अब इस चौकीदारी का कुछ पता नहीं। हमने कहा- लेकि न भाई साहब, आपने तो खुद ही अपने नाम से पहले ‘चौकीदार’ लगाया था। अब यदि तोताराम उस नाम से बुलाता है तो क्या फर्क पड़ता है? बोले- वह क्या हमने अपनी मर्जी से लगाया था। यह भी कोई पद है? क्या हम सेवा के पुण्य क्षेत्र में यह पांच-सात हजार की सीटी बजाने और मोहल्ले में डंडा खडक़ाने की नौ री के लिए आए थे? क्या करोड़ों रुपए इसी के लिए खर्च करके माननीय बने थे? लेकिन क्या करें, हम ठहरे पार्टी के अनुशासित सिपाही। इसलिए पार्टी लाइन लेनी पड़ी। लेकिन यह पद अब ज्यादा दिन रहता नहीं दिखता।तोताराम ने पूछा- क्यों? बोले- पार्टी के सभी टिकट बंट चुके ।

हमारा नाम अभी कहीं आया नहीं। अब थोड़ी उम्मीद है कि हमें नहीं तो, हमारे बेटे को ही टिकट दे दें। यदि उसे भी नहीं मिला तो फिर यह ‘चौकीदारी’ छोडऩी पड़ेगी लोकतंत्र के मामले में ज्यादा रिस्क लेना ठीक नहीं। हमने पूछा- क्या लोकतंत्र से मुलाकात हुई, बात हुई? बोला- ‘उनका’ लोकतंत्र तो अब रैलियों में व्यस्त हो चुका। उन्हें तो ‘शराब’ और ‘सराब’ से फुर्सत नहीं। हां, एक युवा लोकतंत्र मोटर साइकिल पर बैठा दिखा था। एक टांग साइड में टिकाए, तानसेन गुटखा खाते हुए अपनी धुनी सुन रहा था। हम दूर से ही गुजरे क्योंकि उनके मुंह से संसदीय पीक भरी हुई थी। पता नहीं, कब किस पर छींट दे। बाएँ कंधे पर गर्दन टेढ़ी किए हुए स्मार्टफोन को संभाले हुए था। कान में नॉब ठूंसी हुई थी। हमने पूछा- क्यों बेटा, क्या हालचाल है? पता नहीं, उसे हमारी बात सुनी या नहीं लेकिन ‘आंख मार फेम’प्रिया वारियर के मित्र की तरह एक भौंह ऊंची कर दी।

हमें लगा, सब ठीक है। लेकिन अब हम किसी और के लोकतंत्र के बारे में अधिक चिलेने की स्थिति में नहीं हैं। हमने कहा- लेकिन आप तो आए ही लोकतंत्र की रक्षा के वादे पर थे। बोले- ठीक है। हम लोकतंत्र की रक्षा से मुंह कैसे मोड़ सकते हैं? यदि इस लिस्ट में भी हमारा नाम नहीं आया तो फिर हमें अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए कुछ और करना पड़ेगा। तोताराम ने कहा- क्या करेंगे? बोले- यही कि किसी और पार्टी में जाकर ‘अपना लोकतंत्र’ तलाशेंगे। आखिर लोकतंत्र और सेवा के बिना हमारा जीवन व्यर्थ है। हमने कहा- हो सकता है आपकी सेवा के बिना इस लोक का तंत्र और जीवन शायद बेहतर हो जाए। लोक को एक चांस तो देकर देखें। बोले- हम ऐसे मामलों में चांस नहीं लेते।

रमेश जोशी
(लेखक व्यंगकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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