लोकसभा चुनावों के लिए पार्टियां अपने-अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर रही हैं। कई नामी-गिरामी उम्मीदवार रातों-रात पार्टियां बदल रहे हैं, उनकी चर्चा सुर्खियों में हैं लेकिन भाजपा ने अपने जिन वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार किया है, उनकी चर्चा सबसे ज्यादा है। इनमें सबसे प्रमुख लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरलीमनोहर जोशी हैं। ये दोनों नेता भाजपा के अध्यक्ष रहे हैं और अटलबिहारी वाजपेयी के साथ इन्हें भाजपा की त्रिमूर्ति समझा जाता रहा है।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी, बलराज मधोक और दीनदयाल उपाध्याय के बाद ये ही नेता पिछले कई दशकों से जनसंघ और भाजपा की पहचान रहे हैं। कई दशकों से वे सांसद रहे हैं। आडवाणीजी राम-मंदिर के देश-व्यापी आंदोलन के सूत्रधार थे। भाजपा की सरकार जब 1996 में बनी तो उन्होंने अपना ताज अटलजी के सिर पर रख दिया। डॉ. जोशी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा की और सारी धमकियों के बावजूद 1992 में श्रीनगर जाकर ध्वज फहराया।
शिक्षा मंत्री के तौर पर उन्होंने कई अपूर्व सुधार किए। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही इन दोनों नेताओं को ‘मार्गदर्शक मंडल’ में रख दिया। मार्गदर्शक याने मार्ग देखने वाला। दिखाने वाला नहीं। अब मोदी ने दोनों को बाहर का मार्ग दिखा दिया। यह ठीक है कि एक 92 और दूसरे 85 साल के हैं लेकिन दोनों मानसिक और शारीरिक रुप से स्वस्थ हैं। जर्मनी के कोनराड एडेनावर 87 साल की उम्र में राष्ट्रपति थे और मलेशिया के प्रधानमंत्री महाथिर मुहम्मद 93 साल के हैं। दोनों भाजपा नेता सिर्फ सांसद बने रहना चाहते थे।
यदि दोनों को चुनाव लड़ने दिया जाता तो उसमें कोई बुराई नहीं थी लेकिन उन्हें मना किया गया, इसे कौन अच्छा कहेगा ? इसे हिंदुत्व का औरंगजेबी चेहरा भी कहा जा सकता है। 2002 में गुजरात के दंगों के समय प्रधानमंत्री अटलजी ने मेरा लेख ‘नवभारत टाइम्स’ में पढ़ा और मुझे फोन करके कहा कि गुजरात में वे ‘राजधर्म का उल्लंघन’ (मेरे शब्द) नहीं होने देंगे। वे मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते थे लेकिन गोवा में हुई भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में मोदी को बचाने का श्रेय अकेले किसी को था तो वह आडवाणीजी को था।
भाजपा के इन दोनों बड़े नेताओं ने हवा का रुख पिछले पांच साल में क्यों नहीं पहचाना ? उन्हें चाहिए था कि वे खुद ही पार्टी के सारे पद छोड़ देते। लेकिन राजनीति है ही ऐसी बला ! वह नाजुक मिजाज लोगों की खाल को भी गेंडे की तरह मोटी बना देती है। बादशाह और प्रधानमंत्री जैसे लोगों के सीने में भी वह एक भिखारी को बिठा देती है। असली स्वाभिमानी आदमी वह होता है, जो किसी भी पद, पुरस्कार या पैसे के लिए हाथ नहीं फैलाता है बल्कि वह उन्हें तभी स्वीकारता है जबकि वे खुद हाथ जोड़े हुए उसके सामने उपस्थित होते हैं।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है