कहीं नौकरशाह बाधा न बन जाएं ?

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सरकार ने हाल ही में 6 लाख करोड़ रुपए जुटाने के लिए महत्वाकांक्षी संपत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम की घोषणा की है। इसके तहत सड़क, रेलवे स्टेशन, ट्रेन, पोर्ट, टेलीकॉम और बिजली इंफ्रास्ट्रचर के राजस्व अधिकार बेचे जाएंगे। इस अच्छी मंशा वाले कार्यक्रम का उद्देश्य नए इंफ्रास्ट्रचर के लिए पैसा जुटाना और मौजूद संपत्तियों का प्रबंधन ज्यादा प्रभावी निजी सेटर के हाथों में देना है। नीति आयोग के व्यापक लेकिन स्पष्ट मुद्रीकरण गाइडबुक दस्तावेज़ में कहा गया है, ‘संपत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम का रणनीतिक उद्देश्य निजी क्षेत्र की पूंजी और क्षमता का दोहन करके सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति में निवेश के मूल्य का इस्तेमाल करना है।’हालांकि सरकार ने कई बार स्पष्ट किया है कि तकनीकी रूप से यह संपत्ति की बिक्री, विनिवेश क्या निजीकरण नहीं है। निजी भागीदार (कंपनियां, निवेशक आदि) कुछ समय के लिए संपत्ति के दोहन के लिए भुगतान करेंगे, लेकिन उसके मालिक नहीं होंगे। यह सेब के बागान में सेब उगाने और बेचने का अधिकार बेचने जैसा है, जबकि बागान के मालिक आप ही रहेंगे। व्यावहारिक रूप से यह छोटे स्तर पर काम कर सकता है, जैसे एक टोल रोड पर।

हालांकि, बड़े और राष्ट्रीय स्तर पर मुद्रीकरण में कई समस्याएं हैं, जिनपर स्पष्टता जरूरी है। हम ऐसा करने के लिए सरकार के प्रोत्साहन को समझते हैं। हालांकि, डील निजी निवेशकों के लिए भी फायदेमंद होनी चाहिए। वर्ना पिछले कई विनिवेश कार्यक्रमों की तरह, यह योजना भी फलीभूत नहीं हो पाएगी। सरकार इस मुद्दे से अनभिज्ञ नहीं है। गाइडबुक में लिखा है, ‘ऐसे अधिकारों का हस्तांतरण, एक सुपरिभाषित रियायत/ अनुबंध के फ्रेमवर्क के जरिए परिभाषित किया गया है।’ इसके पीछे अच्छी मंशा है। ‘फ्रेमवर्क’ की जरूरत है। हालांकि जब भारत सरकार (फिर वह किसी भी पार्टी की रही हो) के ‘फ्रेमवर्क’ का मतलब निजी भागीदारों के लिए जेल है। ‘फ्रेमवर्क’ बनाने वाले नौकरशाहों को सरकार को बचाने में महारत हासिल है। वे निजी भागीदारों के दृष्टिकोण पर विचार नहीं करते। असर हमारे बाबू मानते हैं कि वे यह देश के लिए कर रहे हैं, जबकि निजी कंपनियां लालची राक्षस हैं जो बस लाभ चाहती हैं। इस मुद्रीकरण कार्यक्रम के ‘फ्रेमवर्क’ को चलाने वाले सिद्धांत या होंगे? अगर भरोसा कम होगा तो योजना में कम लोगों की रुचि होगी।

इस तरह के नियामक/राजनीतिक जोखिम लेने के लिए एक निजी भागीदार के लिए ज्यादा रिटर्न चाहिए होगा। मुझे इस बागान से सेब बेचने का अधिकार है, लेकिन अगर सरकार सेब की कीमतें तय करने लगेगी तो या होगा? या होगा अगर बागान के लिए जरूरी पानी को अन्य ग्रामीणों को दे दिया जाए? अगर सरकार अब बागान नहीं चला रही, उसके लिए पहले ही पैसे ले चुकी है तो क्या वह परवाह करेगी कि बागान को मदद मिले?जोखिम को देखते हुए ज्यादा रिटर्न जरूरी होगा। पिछले 20 सालों में निफ्टी इंडेस ने करीब 12 प्रतिशत सालाना रिटर्न दिया है। एक निजी भागीदार अपनी पूंजी को एक लिक्विड निफ्टी इंडेस फंड में लगाकर इन रिटर्न को दीर्घकालिक बना सकता है। 15 फीसद? 20 फीसद? 25 वर्षों में इन दरों पर अनुमानित राजस्व को छोड़ भी दें तो सरकार की अग्रिम राशि काफी कम हो जाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि भारत सरकार की संपत्तियां सोने की खान हैं।

ऐसा नहीं है। वे सुस्त और चलाने में मुश्किल हैं। उन्हें चलाने वाले को पुरुस्कृत करना चाहिए। वरना उन्हें लेने वाले बहुत नहीं होंगे। निजी पूंजी कहीं और चली जाएगी, जहां बेहतर रिटर्न और कम सिरदर्द हो। अच्छे सार्वजनिक उपक्रमों का पूर्ण निजीकरण और अच्छी भूमि बिक्री सरकार के लिए विशेष बिंदु है। सरकार के पास दो चीजें बहुतायत में होती हैं, जिसे निजी भागीदार पाना चाहते हैं। इसी से अंतत: सरकार को पैसा मिलेगा। कुछ पीएसयू और भूमि का बेहतर आर्थिक इस्तेमाल हो सकता है, अगर सरकार उन्हें बेचे। साथ ही, सरकार पर कर्ज भी बहुत है। इसलिए इन्हें बेचना बुरा आइडिया नहीं होगा। संपत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम की मंशा शानदार है। इससे आर्थिक विकास पर नए सिरे से ध्यान जाएगा, जो काफी समय से लंबित है। हालांकि, ‘फ्रेमवर्क’ निजी भागीदारों के लिए ‘काम’ करने वाला होना चाहिए। साथ ही कुछ पीएसयू और अतिरित भूमि को बेचने पर भी गंभीरता से अमल करना चाहिए।

चेतन भगत
(लेखक अंग्रेजी के उपन्यासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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