अगर सरकार संसद के इस सत्र में फैसला नहीं बदलती तो देश की सामाजिक न्याय नीति और दस साल के लिए अधर में लटक जाएगी। एक तरफ मंत्रिमंडल में पिछड़े वर्ग के चेहरे शामिल करने के बैनर लगेंगे, दूसरी तरफ उसी के हितों पर फिर कुठाराघात होगा। पिछले तीन दशक से देश में एक पाखंड चल रहा है। सन 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू किया था। दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट में इस नीति पर मुहर लगा दी थी। पिछले तीन दशक से केंद्र सरकार की नौकरियों में और 15 साल से केंद्रीय यूनिवर्सिटी और अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों में यह आरक्षण लागू है। लेकिन आज भी हम इस सवाल का जवाब नहीं दे सकते कि देश में आखिर ओबीसी जातियों की संख्या कितनी है? बाकी जातियों और वर्गों की तुलना में पिछड़ी जातियों की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति कैसी है? ओबीसी के भीतर आरक्षण का ज्यादा लाभ किन जातियों को मिला है और किन्हें बिल्कुल नहीं? यह काम मुश्किल नहीं है अगर इसे जनगणना में शामिल कर लिया जाए। हर दस वर्ष में जनगणना होती है।
कायदे से यह 2021 की फरवरी में होनी थी लेकिन कोरोना के चलते 2022 से पहले नहीं हो पाएगी। जनगणना में हर घर और परिवार के प्रत्येक व्यक्ति की सिर्फ गिनती ही नहीं होती, उनके बारे में तमाम सूचना भी इकट्ठी की जाती है। हर व्यक्ति की उम्र, शिक्षा, व्यवसाय दर्ज की जाती है, हर परिवार की भाषा, धर्म और संपत्ति भी नोट की जाती है। सेंसस में हर परिवार की जाति अलग से नोट नहीं की जाती, लेकिन जाति वर्ग पूछते हैं। यानी जाति पूछकर उसे अनुसूचित जाति, जनजाति या सामान्य कॉलम में दर्ज करते हैं। अनुसूचित जाति व जनजाति परिवार में उनकी जाति का नाम भी दर्ज करते हैं, लेकिन सामान्य वर्ग में जाति का नाम नहीं लिखते। सरकार को पिछड़ी जातियों या ओबीसी के बारे में सारी सूचनाएं इकट्ठी करने के लिए बस जनगणना में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के साथ ‘सामाजिक व शैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्ग’ नामक कॉलम जोड़ देना है। इससे जनगणना के आंकड़े आने पर न केवल ओबीसी की जनसंया और उसकी शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक स्थिति मालूम हो जाएगी, बल्कि हर पिछड़ी जाति की स्थिति के आंकड़े भी मिल जाएंगे।
पिछले 30 साल में बार-बार इसकी मांग हो चुकी है। 2001 के सेंसस से पहले उस समय के सेंसस के रजिस्ट्रार जनरल ने भी इसकी सिफारिश की थी। आरक्षण के मामलों पर सुनवाई कर रहे जजों ने ऐसे आंकड़ों की जरूरत रेखांकित की है। 2011 के सेंसस से पहले तो लोकसभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर ओबीसी समेत हर जाति की जातिवार जनगणना का समर्थन किया था। 2018 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने औपचारिक घोषणा की थी कि 2021 के सेंसस में ओबीसी की गिनती होगी। अनेक राज्य सरकारें इसका प्रस्ताव भेज चुकी हैं। संसद की सामाजिक न्याय समिति संस्तुति कर चुकी है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने केंद्र को इसकी सिफारिश भेजी है। लेकिन सत्ता के कान पर जूं नहीं रेंगती। हर बार सेंसस से पहले हर सरकार प्रस्ताव ठुकरा देती है।
वाजपेई सरकार ने सेंसस रजिस्ट्रार के प्रस्ताव को ठुकराया, मनमोहन सिंह सरकार ने तो संसद का सर्वसम्मत प्रस्ताव टरका दिया और इस सरकार ने खुद अपनी घोषणा पर यू-टर्न ले लिया। पिछले सप्ताह सरकार ने संसद में उार देते हुए फिर स्पष्ट किया की आने वाली सेंसस में ओबीसी की या सामान्य जातिवार जनगणना नहीं होगी। ऐसा क्यों होता है? जिस वर्ग को संविधान और कानून में मान्यता मिल चुकी है, जिस पर आरक्षण की नीति जारी है, उसकी गिनती क्यों नहीं होती? जातीय आरक्षण के विरुद्ध तर्क देने वाले भी इन आंकड़ों की मांग क्यों नहीं करते? कौन डरता है जातीय पिछड़ेपन के आंकड़ों के सार्वजनिक होने से? ये साधारण सवाल नहीं हैं। इनके पीछे भारत की सर्वोच्च साा का राज छिपा है, उस सामाजिक सत्ता का जो सरकार और संसद से ऊपर है। वो जातीय साा जो हजारों साल से चली आ रही है।
योगेन्द्र यादव
(लेखक सेफोलॉजिस्ट और अध्यक्ष, स्वराज इंडिया हैं ये उनके निजी विचार हैं)