पहली जुलाई को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को बने सौ साल पूरे हुए। अपने लगभग 9 करोड़ सदस्यों के साथ वह वास्तव में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है और सबसे शतिशाली पार्टी है। हमारी भाजपा अपने 12 करोड़ सदस्यों के साथ दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है लेकिन उसके नेताओं को पता है कि जिस दिन उनके नीचे से कुर्सी खिसकी, ये 12 के 2 करोड़ों को भी बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस साल चीनी पार्टी की सदस्यता के लिए 2 करोड़ अर्जियां आईं लेकिन उनमें से सिर्फ 20 लाख को ही सदस्यता मिली। इसके अलावा इस पार्टी की खूबी यह है कि पिछले 72 साल से यह लगातार सत्ता में है। यह एक दिन भी सत्ता से बाहर नहीं रही। चीन में इसने किसी अन्य पार्टी को कभी पनपने नहीं दिया।
इस पार्टी में 1921 से लेकर अब तक आतंरिक सत्ता-संघर्ष कभी-कभी हुआ, वरना इसका नेता पार्टी, सरकार और फौज — इन तीनों को हमेशा अपने कब्जे में रखता रहा। 1917 में रुस में हुई कम्युनिस्ट क्रांति से प्रेरित होकर चार साल बाद 1921 में दो चीनी बुद्धिजीवियो — चेन दूश्यू और ली दझाओ ने शांघाई में इस पार्टी की नींव रखी। माओ त्से तुंग इसके संस्थापक सदस्यों में थे। नतीजा यह हुआ कि पिछले 40 साल में चीन की प्रति व्यति आय 80 गुना बढ़ गई जबकि भारत में सिर्फ 7 गुना बढ़ी है। तंग ने मार्सवादी विचारधारा के शिकंजे को जरा ढीला किया और एक सूत्रवाय कहा कि ”बिल्ली काली है कि गोरी है, इससे हमें मतलब नहीं। हमें देखना यह है कि वह चूहा मार सकती है या नहीं ?”
इसी सूत्र ने चीन के 80 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया है। चीनी अर्थव्यवस्था ने लगभग तीन लाख करोड़ डालर की विदेश पूंजी को आकर्षित किया है। आज वह दुनिया का सबसे अधिक ताकतवर और मालदार देश बनने की कोशिश कर रहा है। मुझे वह अमेरिका की उपभोतावादी जीवन-पद्धति का अंधानुयायी- जैसा लगता है। चीन के दर्जनों शहरों और सैकड़ों गांवों में अपनी कई यात्राओं के दौरान मैंने पाया है कि वह अब पूंजीवाद का पथिक बन गया है लेकिन उसकी राजनीति अभी भी स्तालिनवादी पटरी पर ही चल रही है। उसकी आक्रामक विदेश नीति और जबर्दस्त विदेशी विनियोग से एक नए और सूक्ष्म साम्राज्यवाद की घंटियां बज रही है। पिछले सौ साल में चीन तो बदल गया लेकिन उसकी शासन-पद्धति त्यों की त्यों बनी है।
डा. वेद प्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)