खेल-खेल में ताकत व पैसे का बड़ा खेल

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उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत के चुनाव चल रहे हैं। तीन जुलाई को मतदान है। मीडिया अपने-अपने दृष्टिकोण से इनका विश्लेषण कर रही है। कोई इसे अगले साल होने वाले विधान सभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहा है। कोई कह रहा है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाकियू के विरोध के कारण भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। सबके अपने अलग-अलग तर्क हैं, अलग-अलग राय। अलग सोच। जबकि ये अलग तरह का चुनाव है। इस चुनाव में प्रदेश में सत्तारूढ़ दल लाभ में रहता है। खुलकर पैसा भी चलता है। पैसे के आगे सब आस्था और सिद्धांत एक कोने में पड़े रह जाते हैं। इस जिला पंचायत अध्यक्ष के इस चुनाव में देखा जाता है। जिला पंचायत के सदस्य सरेआम खरीदे और बेचे जातें हैं। सदस्यों की खुली कीमत लगती हैं। प्रत्याशी मांगी या तय रकम सदस्य के घर पहुंचा देते हैं। पैसा घर पंहुचने के बाद सदस्य मतदान करने तक प्रत्याशी के पास रहता है। वोट डालने के बाद ही उसे मुक्ति मिलती है।

मनमांगा पैसा दिया जाता है, इसीलिए कई बार तो सदस्य का खुला वोट लिया जाता है क्या वोटर के साथ अपना विश्वसनीय सहायक बनाकर मतदान केंद्र में भेज दिया जाता है। दरअस्ल यह चुनाव डाइरेट नहीं होता। जिला पंचायत अध्यक्ष लिए जिला पंचायत के और क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष के लिए क्षेत्र पंचायत के मतदाता मतदान नहीं करते हैं। इनमें जिला पंचायत के लिए चुनकर आए सदस्य जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायत के लिए चुनकर आए सदस्य क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष के लिए मतदान करते हैं। प्रधान के लिए सीधे मतदान होता है। बहुत समय से जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायत के लिए भी सीधे मतदान की मांग हो रही है। इसमें कानूनी अड़चन आ रही है। उसके बाद ही ऐसा संभव है। आज प्रदेश में भाजपा सत्ता में है। उसकी स्थिति बहुत मजबूत है। कांग्रेस और रालोद का अपना अकेले कोई वजूद नहीं। बसपा जिला पंचायत चुनाव लड़ नहीं रही। सपा ने अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे। चुनाव लडऩे की घोषणा तो की , किंतु आधे-अधूरे मन से चुनाव लड़ा जा रहा है।

कोई कुछ कहे सभी राजनैतिक दल इस चुनाव की सच्चाई जानते हैं। जानते हैं कि चुनाव सत्ता और पैसे का है। एक बात और नेता कुछ भी कहें धनबल के आगे पार्टी , रिश्ते सब बेकार हो जाते हैं। इसका कारण है कि 21 जनपदों में अकेले भाजपा प्रत्याशियों ने नामजदगी कराई। दूसरा प्रत्याशी नामजदगी नहीं करा सका। बताया जाता है कि जहां नामजदगी हुई, वहां पर्चा इस तरह भरा गया कि वह निरस्त हो जाए। न कहीं कोरोना महामारी से जनता की भाजपा से नाराजगी नजर आई। न भारतीय किसान यूनियन का विरोध। क्योंकि ये इस तरह का चुनाव नहीं है। आम मतदाता की इस चुनाव में भागीदारी ही नहीं हैं। पार्टी के जिलाध्यक्षों का इस चुनाव में ढुलमुल रवैया देख समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने पार्टी के 11 जिलाध्यक्ष को बर्खास्त कर दिया।

इस बार एक प्रत्याशी का मूल्य 15 से 20 लाख के आसपास बताया जा रहा है। जहां इतना पैसा मिले, वहां सब व्यर्थ हो जाता है। पार्टी सिद्धांत सब किनारे हो जातें हैं। दूसरे प्रत्येक जिला पंचायत सदस्य जानता है कि वह सत्तारूढ़ पार्टी के साथ रहकर लाभ कमा सकता है। विरोधी पक्ष के रहकर कुछ लाभ होने वाला नहीं है। जिला पंचायत के कार्य संचालन के लिए समिति बनती है। कई समितियां होती हैं। अध्यक्ष के साथ रहने वाले इसमें शामिल होकर लाभ उठातें हैं। दूसरे चुनाव में सदस्य का मूल्य काफी आकर्षक होता है। 15-20 लाख तो आम बताया जाता है। जरूरत के हिसाब से रेट बढ़ता जाता है। ज्यादा विरोध कर ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है। ऐसी हालत में सत्ताबल और धनबल के इस चुनाव को विधान सभा चुनाव का सेमीफाइनल बताना एक तरह की बेईमानी ही है।

अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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