राजद्रोह कानून: लोकतंत्र के लिए चुनौती

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महात्मा गांधी की 150 वीं गौरवशाली जयंती के बाद अब राजद्रोह कानून ने भी 150 सालों के विवादों का सफर पूरा कर लिया है। गांधीजी ने कहा था कि जनता में राजद्रोह जैसे काले कानूनों के जोर पर सरकार के प्रति प्रेम पैदा नहीं किया जा सकता। राजद्रोह के आरोप में कई मुकदमों के ट्रायल के बाद लोकमान्य तिलक आज़ादी की लड़ाई के ऐतिहासिक नायक बन गए थे। तिलक तो असली नायक थे, लेकिन आजादी के बाद ऐसा भी हुआ कि राजद्रोह कानून के गलत इस्तेमाल से असली अपराधी भी नायक बन गए जो सांविधानिक व्यवस्था की नाकामी को ही दर्शाता है।

क्या सरकार के खिलाफ बात करना भी राजद्रोह?

भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 124-ए के अनुसार अगर कोई व्यक्ति बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा, विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना और असंतोष उत्पन्न करे या ऐसा करने का प्रयास करे तो उसे आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक की कैद और ज़ुर्माना अथवा सभी से दंडित किया जाएगा।

यह कानून आज भारतीय गणतंत्र में कितना प्रासंगिक?

आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के जन्मदाता माने जाने वाले इंग्लैंड में सन 1275 के आसपास वेस्ट मिनिस्टर कानून से राजा के देवत्व को बचाने की पहल हुई, जिसे राजद्रोह क़ानून की शुरुआत माना जा सकता है। इसके बाद इंग्लैंड के 1845 के क़ानून की तर्ज़ पर भारत में 1870 में आईपीसी में राजद्रोह के अपराध का क़ानून जोड़ा गया। भारत के संविधान में जनता द्वारा चुनी गई सरकार हर पांच साल में बदल जाती है, इसलिए सरकार के खिलाफ बोलना कोई गुनाह नहीं है। अंग्रेज़ी हुकूमत में अभिव्यक्ति की आजादी का हक हासिल नहीं था, लेकिन आजाद भारत में यह सबसे बड़ा मूल्यवान सांविधानिक हक़ है। इंग्लैंड में यह कानून सन 2009 में निरस्त हो गया। फिर भारतीय गणतंत्र में राजद्रोह के नाम पर जनता के सांविधानिक अधिकारों का हनन कैसे जायज माना जा सकता है?

राजद्रोह के क़ानून में कैसा रहा सियासत का पेंच?

प्रधानमंत्री नेहरू ने सन 1951 में पहले संविधान संशोधन से अनुच्छेद 19(2) में पब्लिक आर्डर को भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का अपवाद बनाकर राजद्रोह क़ानून को सांविधानिक मजबूती प्रदान कर दी। उसके बाद संविधान में 16वें संशोधन से संविधान के अनुच्छेद में देश की एकता और अखंडता का प्रावधान अपवाद के तौर पर जोड़ा गया। इंदिरा गांधी के दौर में सन 1974 में नयी सीआरपीसी में राजद्रोह को संगेय अपराध बनाकर इसे और सख्त बना दिया। कम्युनिस्ट सांसद डी राजा ने सन 2011 में इसे खत्म करने के लिए राज्यसभा में निजी विधेयक पेश किया, लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कोई तवज्जो नहीं दिया। उसके बाद भाजपा सरकार आने पर सुर बदलते हुए कांग्रेसी सांसद शशि थरूर ने इसमें बदलाव के लिए निजी विधेयक पेश कर दिया। 2019 के आम चुनाव के पहले सियासी मुद्दा बनाते हुए कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में राजद्रोह के क़ानून को खत्म करने की बात कही। कांग्रेसी राज में दमन के शिकार संघ और भाजपा के नेताओं ने राजद्रोह क़ानून का सदैव विरोध किया। लेकिन सत्ता में आने पर सियासी पलटी मारते हुए भाजपा सरकार ने देशहित के नाम पर राजद्रोह क़ानून को जारी रखने का इरादा बुलंद कर दिया।

क्या राजद्रोह और देशद्रोह में फर्क है?

विधि आयोग ने 1971 में पेश 43वीं रिपोर्ट में राजद्रोह के दायरे में सरकार के साथ संविधान, विधायिका और न्यायपालिका को लाने की बेतुकी सिफारिश कर डाली। लेकिन संविधान, संसद, न्यायपालिका और देश की सुरक्षा के लिए संविधान और आईपीसी में पहले से ही अलग-अलग कानून बने हैं तो फिर चीजों को गड्ड मड्ड क्यों किया जा रहा है राजद्रोह और देशद्रोह को एक मानने की गलती करना संविधान के साथ पूरे देश के साथ एक धोखा है। देश की एकता अखंडता को खंडित करने और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने वाले राष्ट्र-विरोधी, पृथकतावादी और आतंकवादी तत्वों से निपटने के लिए आईपीसी में कई क़ानून के साथ यूएपीए, मकोकाऔर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून जैसे सख्त कानूनों की व्यवस्था है। तो फिर राजद्रोह के लचर कानून के नाम पर सरकार और देश का फर्क खत्म करने की इजाजत कैसे दी जा सकती है?

हर तरफ खिलाफत, तो क्यों न रद्द को कानून?

गुलाम भारत में तिलक और गांधी के बाद आज़ाद भारत में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और राम मनोहर लोहिया जैसे मनीषियों ने राजद्रोह जैसे कानून की खिलाफत की थी। प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद कहते थे कि सिर्फ बाहरी वेशभूषा के आवरण से देशभक्ति पैदा नहीं की जा सकती। उपनिवेशवाद के निशानों के खात्मे के लिए नई संसद के निर्माण के साथ राजद्रोह जैसे अप्रासंगिक और दमनकारी कानूनों को रद्द करना समय की मांग बन गई है।

कैसे हो सकता है कानून रद्द?

बिहार के कम्युनिस्ट नेता केदारनाथ सिंह ने सीआईडी को गाली दी, जिस पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला ठोंक दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट गया। सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच ने सन 1962 में क़ानून को वैध ठहराने के बावजूद इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कई जरूरी आदेश पारित किए। इन आदेशों के अनुसार आपत्तिजनक लेख, भाषण, टीवी प्रस्तुति या सोशल मीडिया पोस्ट के साथ हिंसा भड़काने का सीधा मामला हो, तभी राजद्रोह का मामला बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने हालिया फैसले में उसी आधार पर वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के मामले को रद्द कर दिया। सन 2019 में राजद्रोह के मामलों में सजा की दर सिर्फ 3.3 फीसदी थी। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों के बाद अब यह जरूरी हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द करने पर विचार करे। केदार नाथ सिंह मामले में 5 जजों की बेंच थी, इसलिए अब इस मामले में सुनवाई के लिए 7 या ज्यादा जजों की नई बेंच बनानी होगी।

विराग गुप्ता
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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