अफगानिस्तान से लगभग 20 साल बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी 11 सितंबर तक पूरी होने की उमीद है। इस बीच तालिबान अफगानिस्तान में अपना वर्चस्व बढ़ाने में सक्रिय है। भारत इस वत तालिबान के संपर्क में है। कतर की राजधानी दोहा में भारतीय अफसरों और तालिबानी नेताओं के बीच सकारात्मक बातचीत भी हुई है। अफगानिस्तान या पाकिस्तान में तालिबान की ताकत को दुनिया जानती है। इसलिए तालिबान के 50 जिलों पर कब्जे की बात से ज्यादा हैरानी नहीं होती, लेकिन भारत जैसा लोकतांत्रिक देश अगर तालिबान जैसे आतंकी संगठन से संपर्क करता है तो यह बात चौंकाती है। भारत का विदेश मंत्रालय इस मामले पर चुप है, लेकिन कतर के चीफ निगोशिएटर मुतलाक बिन मजीद अल कहतानी ने इसकी पुष्टि कर दी है। 1979 से 1989 तक अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का शासन रहा। अमेरिका, पाकिस्तान और अरब देश अफगान लड़ाकों (मुजाहिदीन) को पैसा और हथियार देते रहे। जब सोवियत सेनाओं ने अफगानिस्तान छोड़ा था तो मुजाहिदीन गुट एक हो गए थे ।
इसको नाम दिया गया तालिबान। हालांकि अब तालिबान कई गुटों में बंट चुका है। इस संगठन में 90 प्रतिशत पश्तून कबायली लोग हैं। इनमें से ज्यादातर का संबंध पाकिस्तान के मदरसों से है। पश्तों भाषा में तालिबान का अर्थ होता हैं छात्र या स्टूडेंट। पश्चिमी और उत्तरी पाकिस्तान में भी काफी पश्तून हैं। अमेरिका और पश्चिमी देश इन्हें अफगान तालिबान और तालिबान पाकिस्तान के तौर पर बांटकर देखते हैं। 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत रही। इस दौरान दुनिया के सिर्फ तीन देशों ने इसकी सरकार को मान्यता देने का जोखिम सऊदी अरब, संयुत अमीरात और पाकिस्तान ने उठाया था। ये तीनों ही देश सुन्नी बहुल इस्लामिक गणराज्य थे। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1999 में जब इंडियन एयरलाइंस के विमान आईसी-814 को हाईजैक किया गया था। तब इसका आखिरी ठिकाना अफगानिस्तान का कंधार एयरपोर्ट ही बना था। उस वतपाकिस्तान के इशारे पर तालिबान ने भारत सरकार को एक तरह से ब्लैकमेल किया। तीन आतंकियों को रिहा किया गया और तब हमारे यात्री देश लौट सके थे। अब कतर के चीफ निगोशिएटर अल कहतानी के मुताबिक तालिबान से बातचीत के लिए भारतीय अधिकारियों ने दोहा का दौरा किया है।
हर किसी को लगता है कि तालिबान भविष्य में अफगानिस्तान में बड़ा रोल प्ले करने वाला है। इसलिए हर कोई उससे बातचीत करना चाहता है। भारत ने अफगानिस्तान की बेहद मदद की है और वो वहां अमन और स्थिरता चाहता है। ये बात तो रही कतर के अफसर की। अब इसे हालिया सिर्फ एक घटना से जोड़कर देखें तो तस्वीर साफ हो जाती है। दरअसल, हमारे विदेश मंत्री दो हफ्तों में दो बार दोहा पहुंचे और यहां कतर की टॉप लीडरशिप से मुलाकात की। दूसरी बात कतर में तालिबान की पॉलिटिकल लीडरशिप है और वे कई पक्षों से यहीं बातचीत कर रहे हैं। ऐसे में यह मान लेने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि भारत भी अफगानिस्तान की बदलती हकीकत को स्वीकार करके तालिबान को तवज्जो देने लगा है। इसके बावजूद भारत सरकार को इस दिशा में फूंक-फूंककर कदम उठाना चाहिए योंकि भारत सदैव से ही शांतिप्रिय देश रहा है। भारत ने कभी भी हिंसा का समर्थन नहीं किया है। भारत को अफगानिस्तान या तालिबान के प्रति भी वही विदेश नीति रखनी होगी जो सबके लिए है। तालिबानी नेताओं का भारत अधिकारियों के सपर्क से या प्रभाव पड़ेगा यह देखने वाली बात होगी।