टीके में नस्लभेद मानवजाति पर कलंक

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हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एटोनियो गुटेरस ने ट्वीट किया, ‘अमीर देश और इलाकों को कम आय वाले देशों की तुलना में 30 गुना तेजी से वैक्सीन मिल रही है। टीकाकरण में अंतर न सिर्फ अनुचित है, बल्कि सभी के लिए खतरा है…’ एक अन्य लेख में डब्ल्यूएचओ प्रमुख ने मौजूदा वैक्सीन संकट को ‘शर्मनाक असमानता’ बताया। उन्होंने कहा कि अब तक लगे 75% टीके सिर्फ 10 देशों में लगे हैं। जबकि 0.3% कम आय वाले राष्ट्रों में गए। अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद मानवजाति ने दुनियाभर में कोविड टीकाकरण के मामले में खुद को निराश किया है। दुनिया में एकमात्र वैश्विक प्रयास डब्ल्यूएचओ का ‘कोवैक्स’ है, जो गरीब देशों को वैक्सीन उपलबध कराने का कार्यक्रम है। वह पहले ही कमी का सामना कर रहा है। कई देशों को अब तक एक भी डोज नहीं मिला। मुख्य निर्भरता सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया पर थी, वह भी भारत में कमी के चलते कोवैक्स को टीके नहीं दे पाएगा। स्थिति बुरी है।

वैक्सीन की कमी वाले देश अब भी कोरोना से हो रही मौतें झेल रहे हैं। वहीं अमेरिका, यूके और इजरायल ने करीब आधी आबादी को टीका लगाकर कोरोना के मामले 90% तक कम कर लिए हैं। वहां जीवन सामान्य होने लगा है। बेशक, वैक्सीन की समय पर सोर्सिंग और प्री-ऑर्डर न करने का दोष कुछे देशों पर हैं।

उदाहरण के लिए, भारत 2020 में ही वैक्सीन उम्मीदवारों की योजना बनाकर प्री-ऑर्डर कर सकता था। हमने नहीं किया। हम इसका नतीजा भुगत रहे हैं। हालांकि जब 100 देशों के पास बिल्कुल टीके न हों, वहीं कुछ के पास लगभग पूरी सप्लाई हो, तो दुनिया और समूची मानव जाति के स्तर पर कुछ गलत लगता है। हम सभी एक ही मानव जाति के हैं। यह कहना कि किसी खास देश का नागरिक होने से कोई जीने का ज्यादा हकदार हो जाता है, जबकि दूसरे नहीं, यह हमारी नस्ल का स्याह पक्ष बताता है। यह वैक्सीन नस्लभेद है।

कुछ मुट्‌ठीभर फार्मा कंपनियों और सक्रिय सरकारों के हाथ में वैश्विक संकट का समाधान है। बड़ी फार्मा कंपनियों ने टीके की खोज की। उन्हें पूरा श्रेय जाता है। उनका पूरा सम्मान है। लेकिन इस शानदार खोज के बावजूद दुनिया संकट से बाहर नहीं है। सिर्फ कुछ देश हैं। क्या यह वैक्सीन लक्जरी उत्पाद हैं? कल्पना करें, अगर पोलियो या स्मॉल-पॉक्स का टीका सिर्फ अमीर देशों को दिया जाता तो? तब भी आप खोजकर्ताओं और निवेशकों का सम्मान करते?

मौजूदा टीका संकट सिर्फ बड़ी फार्मा कंपनियों का दोष नहीं है। दुनियाभर की सरकारों और यूएन/डब्ल्यूएचओ का भी दोष है। कई सरकारें लालफीताशाही, टीका राष्ट्रवाद और परिस्थिति की तात्कालिकता समझने में अक्षमता की दोषी हैं। यूएन/डब्ल्यूएचओ में सक्रियता की कमी है। उन्होंने आवश्यक पैमाने को कम आंका और 2020 में वैक्सीन उम्मीदवारों से साझेदारी में पीछे रहे। आज भी कोवैक्स कार्यक्रम मदद आधारित है, न कि बड़ी फार्मा कंपनियों के प्रति व्यवसाय उन्मुख। इसलिए उनका पेटेंट छोड़कर समस्या सुलझाना जरूरी है।

इस संकट का समाधान है इन टीकों का उत्पादन बढ़ाना। इसके लिए वैक्सीन का आईपी (बौद्धिक संपत्ति) रखने वाली कंपनियों को आईपी छोड़ना होगा। यह नैतिक अपील से नहीं होगा। वैक्सीन आईपी धारकों को पूंजीवादी प्रोत्साहन के तहत उचित कीमत देनी होगी। खुशकिस्मती से दुनिया यह कीमत चुका सकती है। टीका इतना बहुमूल्य है कि कोई भी देश उचित बाजार मूल्य देने को तैयार हो जाएगा।

यूएन/डब्ल्यूएचओ, डब्ल्यूटीओ और विश्व नेताओं को मिलकर पेटेंट रिलीज करने की राशि तय करनी चाहिए, जो वैक्सीन निर्माताओं की भरपाई कर सके। यह राशि आबादी के आधार पर सभी देश दे सकते हैं। पेटेंट मिलने पर हम दुनियाभर के अन्य प्लांट में वैक्सीन निर्माण में तेजी ला सकते हैं।

क्या बड़ी फार्मा कंपनियों के लिए ऐसे समय में बहुत पैसा कमाने की उम्मीद करना नैतिक रूप से गलत है? हमारे पास नैतिकता के मुद्दों पर चर्चा करने का समय नहीं है। हमें बस टीकाकरण जारी रखने की जरूरत है। किसी भी स्थिति में, इसमें शामिल राशि कुछ डॉलर प्रति व्यक्ति या किसी देश की जीडीपी के कुछ प्रतिशत अंकों से ज्यादा नहीं होगी, शायद एक बार कुछ राजकोषीय घाटा हो जाए।

मानवजाति को खुद को संभालने की जरूरत है, वरना दुनिया का अगले तीन साल में टीकाकरण नहीं हो पाएगा। अमीर देश खुद को बेवकूफ बना रहे हैं, अगर वे सोचते हैं कि वे सिर्फ खुद का टीकाकरण कर महामारी से बाहर आ जाएंगे। बिना टीकाकरण वाली आबादियों से आ‌ने वाले वैरिएंट असली जोखिम हैं।

डब्ल्यूएचओ को कोवैक्स के लिए बेहतर योजना की जरूरत है। गरीब देश टीके की कीमत चुका सकते हैं (चुकानी भी चाहिए)। बड़ी फार्मा कंपनियों को टीकों की खोज करने के लिए भुगतान करने की जरूरत है और दुनिया को इन टीकों का तेजी से उत्पादन बढ़ाने की जरूरत है। मानवजाति को खुद के लिए यह करना होगा। आइए दुनिया का तेजी से टीकाकरण करें।

गरीब देशों से भेदभाव

हम सभी एक ही मानव जाति के हैं। यह कहना कि किसी खास देश का नागरिक होने से कोई जीने का ज्यादा हकदार हो जाता है, जबकि दूसरे नहीं, यह हमारी नस्ल का स्याह पक्ष बताता है। यह वैक्सीन नस्लभेद है। क्या यह वैक्सीन लक्जरी उत्पाद हैं? कल्पना करें, अगर पोलियो या स्मॉल-पॉक्स का टीका सिर्फ अमीर देशों को दिया जाता तो?

चेतन भगत
( लेखक अंग्रेजी के उपन्यासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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