आप को वह कहानी याद दिलाना चाहता हूं, जिसमें एक सोते व्यक्ति की तोंद पर से चूहा दौड़ कर निकल गया था और आधी रात उसने ऐसी हाय-तौबा मचाई कि परिवार-तोपरिवार, पूरे मुहल्ले को जगा कर इकट्ठा कर लिया। जब लोगों को मालूम हुआ कि माजऱा इतना पिद्दा है तो सब ने उसे कोसा कि जऱा-सी बात पर वह इतना शोर यों मचा रहा है? व्यक्ति का जवाब था, मुद्दा यह नहीं है कि अभी सब ठीक है, मुद्दा यह है कि चूहे के लिए रास्ता बन गया है। मुझे चिंता आगे की हो रही है। सो, पांच राज्यों में से चार के चुनाव नतीजों के अपनी तोंद पर से गुजऱ जाने के बाद जो प्रसन्न-बदन घूम रहे हैं, मैं उन से कहना चाहता हूं कि भारतीय जनता पार्टी ने चाहे किसी भी तरह के साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए अपने लिए रास्ता बनाया हो, लेकिन अब रास्ता उस ने देख लिया है। भाजपा उन में से नहीं है, जिन्हें दो-चार घर आगे के किसी ओटले पर सुस्ता लेने से संतोष हो जाता हो। नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भाजपा बुलडोजऱी-अश्व पर सवार है। आठ साल पहले, 2013 के सितंबर महीने के दूसरे शुक्रवार को जिस व़त नरेंद्र भाई की प्रधानमंत्री-उमीदवारी का ऐलान अंतत: हो ही गया था, उसके छह महीने पहले से भाजपा-संघ के आसमान में आकार ले रहे सायों की श़ल ने आगत के आसार तय कर दिए थे।
भाजपाइयों की अनुचर-वृत्ति, संघ की ल_- प्रवृत्ति और ‘मोशा’ जुगल-जोड़ी के एकाधिकारी अंत:मानस की जिन्हें जऱा-सी भी समझ थी, वे समझ गए थे कि भावी सियासत की सांय-सांय कैसी रहने वाली है। रायसीना पहाड़ी पर 2014 में जितनी मजबूती से नरेंद्र भाई ने अपने पैर रखे थे, उसके बाद वे सब-कुछ अपने उन पैरों तले न रौंदते तो अपने वैचारिक डिऑसीराइबोन्यूलिक अल से विश्वासघात करते। सो, हर कीमत चुका कर अपनी विजय पताका फहराने का काम वे सात बरस से अनथक कर रहे हैं। इस रास्ते पर चलने में देश का नव-निर्माण होने के बजाय उसका सर्वनाश होता हो तो हो। उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं है। पांच राज्यों के नतीजों में भाजपा का मौजूदा स्थिति का इसलिए ग़ौर से आकलन करना जरूरी है कि उनमें से चार ऐसे थे, जिनमें अब तक भाजपा इतनी बेश़ल थी कि उसकी सूरत संवरने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं थे। मगर अब जब चुनाव नतीजे सामने हैं तो भाजपा के प्रदर्शन पर एक-दूसरे की पीठ थपथपाने का नरेंद्र भाई और अमित भाई को पूरा-पूरा हक़ है। यह हक़ हासिल करने के लिए वे किस हद तक नीचे उतरे, इसकी चीर-फाड़ का आज कोई मतलब नहीं है। असम में भाजपा की सरकार थी। फिर भी वहां उसका लौटना हैरत की बात है। पांच साल पहले भी भाजपा ने 126 में से 60 सीटें जीती थीं और इस बार भी वह उतनी ही संख्या ले गई।
जबकि माहौल देखने वाले कह रहे थे कि उसे पहले से आधी सीटें भी मिल जाएं तो बहुत है। उसके वोट भी पौने चार प्रतिशत बढ़ कर 33.21 फ़ीसदी हो गए। लग रहा था कि असम में कांग्रेस की सरकार बन जाएगी, मगर पिछली बार के मुकाबले उसे तीन ही सीटें ज़्यादा मिलीं। 29 सीटों के साथ उसके वोट तो सवा प्रतिशत कम हो गए। असम गण परिषद 14 से 9 सीटों पर आ गई। लिबरल पार्टी शून्य से 6 पर पहुंच गई। बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट 12 से 4 पर आ गया।, मार्सवादी शून्य से एक पर आ गए। कांग्रेस के वोटों में इस बार क़ऱीब पौने पांच लाख की बढ़ोतरी हुई है। लेकिन पिछली बार की तुलना में भाजपा को कऱीब 14 लाख वोट ज़्यादा मिले हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को पिछली बार से दो सीटें ज़्यादा मिली हैं और उसका वोट भी तीन प्रतिशत बढ़ा है। लेकिन 292 की विधानसभा में 213 सीटें हासिल करने के बावजूद ममता का ख़ुद हार जाना बड़ा प्रतीकात्मक झटका है। ममता को उनके सियासी सफऱ के इस अंधे मोड़ तक लाने के लिए किस को कितनी अंधेरग़र्दी करनी पड़ी होगी, यह अलग बात है, मगर हक़ीक़त के हफऱ् तो वे ही माने जाएंगे, जो निर्वाचन आयोग की घोषणा में लिखे हैं। तृणमूल को इस बार पौने बयालीस लाख वोट ज़्यादा मिले हैं।
मगर इस तथ्य से आंखें कैसे मूंदें कि भाजपा अपने पल्लू में पिछली बार से कऱीब पौने दो करोड़ वोट अधिक बटोर कर ले गई है, उसकी सीटें 3 से 77 हो गई हैं और वोट में कऱीब 28 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है। जैसे भी हुआ है, यह हुआ है। कांग्रेस और वाम दलों ने इस बार का चुनाव ख़ुद को नहीं, ममता को जिताने के लिए लड़ा था। सो, कांग्रेस ने पिछली बार के मुकाबले साढ़े 50 लाख वोट गंवा दिए। उसकी सीटें भी 44 से घट कर शून्य पर पहुंच गई। वाम दलों ने भी तकऱीबन एक करोड़ वोट का नुक़सान उठाया और उन्हें भी एक भी सीट नहीं मिली। पिछली बार सब मिला कर उन्हें 32 सीटें मिली थीं।केरल में भाजपा को पिछली बार सिफऱ् एक सीट मिली थी और उसे भी मतदाताओं ने इस बार छीन लिया। लेकिन इस बार उसके वोटों में सवा दो लाख का इज़ाफ़ा हुआ है। पिछली बार उसे सवा 21 लाख वोट मिले थे। उसके वोट में पौन प्रतिशत की बढ़ोतरी भी हुई है। 140 सीटों में से पिछली बार वाम मोर्चे को 91 मिली थीं। इस बार दो कम हुई हैं। उसे पांच प्रतिशत वोट का भी नुक़सान हुआ है। केरल के पिछले चुनाव में कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। इस बार 21 मिली हैं। कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त मोर्चे के वोट प्रतिशत में सवा पांच की गिरावट आई है। तमिलनाडु में नरेंद्र भाई घुमा-फिरा कर अपनी जाजम बिछाने में डेढ़-दो साल से ही कोई कसर बाकी नहीं रख रहे थे।
मगर कावेरी के पानी में काली उड़द नहीं गली। द्रमुक को पांच बरस पहले के चुनाव में 234 में से 89 सीटें मिली थीं। वे इस बार बढ़ कर 133 हो गईं। अन्नाद्रमुक को 136 मिली थीं, टूट-दरटूट के बाद इस बार 66 ही मिल पाईं। द्रमुक को पहले से 38 लाख वोट ज़्यादा मिले। उसका वोट प्रतिशत साढ़े छह बढ़ गया। अन्नाद्रमुक को पिछली बार से सवा 24 लाख वोट कम मिले। उसका वोट प्रतिशत साढ़े सात कम हो गया। कांग्रेस की सीटें पिछली बार की तुलना में 8 से बढ़ कर 18 ज़रूर हो गईं, मगर उसे 8 लाख वोट कम मिले। प्रतिशत में भी सवा दो की गिरावट आई। जिस भाजपा को पिछली बार एक भी सीट नहीं मिली थी, उसे ऐसे मौसम में भी इस बार 4 मिल गईं। वोट भी उसे सिफऱ् 22 हज़ार ही कम मिले और वोट-प्रतिशत भी मामूली-सा ही घटा। पुदुचेरी की तरफ़ देख कर भाजपा अपने दीदे कभी से मटका रही थी। अपने मायाजाल के बूते इस बार वह 6 सीटें लपक ही ले गई। जब कि पिछली बार सभी 30 सीटें लडऩे के बाद भी वह शून्य पर थी और उसे पूरे राज्य में महज़ 19 हज़ार वोट मिले थे। मगर इस बार भाजपा को 1 लाख 14 हज़ार वोट मिले हैं। कांग्रेस को पिछली बार 15 सीटें और 2 लाख 45 हज़ार वोट मिले थे। इस बार उसे सिफऱ् दो सीटें मिली हैं और एक लाख 13 हज़ार कम वोट मिले हैं। कांग्रेस का वोट प्रतिशत पुदुचेरी में साढ़े 30 से घट कर आधा रह गया है। इसलिए कह रहा हूं कि ग़ैरभाजपा दलों के लिए यह ज़श्न मनाने का नहीं, अपने घोड़ों की जीन कसने का समय है। याद रखिए, गफ़लत में बड़े-बड़े सफ़ीने गर्त हो जाते हैं।
पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं ये उनके निजी विचार हैं)