उफ, डॉक्टरों की ये हताशा

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दिल्ली के बत्रा अस्पताल में जब ऑक्सीजन की कमी के कारण दो डॉक्टरों समेत कई मरीजों की मौत हो गई, तो उसके बाद अस्पताल के निर्देशक की जो पीड़ा और हताशा एक टीवी इंटरव्यू में जाहिर हुई, उसे देख कर किसी व्यक्ति का मन पसीज जाएगा। सचमुच अगर डॉक्टर एक बुनियादी सप्लाई की कमी के कारण मरीजों की जान ना बचा पा रहें, तो उनकी निराशा समझी जा सकती है। हालात इतने बुरे हैं कि आज मेडिकल प्रोफेशनल हार मानते दिख रहे हैं। ये खबर भी गौरतलब है कि कोरोना के मरीजों का इलाज कर रहे 35 साल के एक डॉक्टर ने पिछले दिनों खुदकुशी कर ली। बताया गया वे एक महीने से कोरोना के मरीजों का इलाज कर रहे थे। वे इस बात से परेशान थे कि उन्हें बहुत कम मामलों में करोना मरीजों को बचाने में कामयाबी मिल रही है। अभी जब कोरोना महामारी की दूसरी लहर नहीं आई थी, तब बीते फरवरी में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने राज्यसभा को बताया था कि कोविड-19 ड्यूटी पर 162 डॉटर, 107 नर्स और 44 आशा कार्यकर्ता मरे गए हैं। लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने सरकार के बयान पर हैरानी जताई। उसके मुताबिक ये आंकड़ा इससे बहुत ज्यादा है। डॉटरों की मुसीबत यह भी है कि अस्पताल में मरीजों की इलाज के दौरान मौत हो जाती है, तो उनके परिजन कई बार अस्पताल में हंगामा करते हैं।

तब डॉक्टरों और नर्सों पर हमले किए जाते हैं। इस तरह सरकार की नाकामियों का खामियाजा स्वास्थ्यकर्मियों को भुगतना पड़ता है। मरीज यह नहीं समझते कि अगर ऑक्सीजन या वेंटीलेटर की कमी से किसी मरीज की मौत हुई, तो उसके लिए सीधे जिम्मेदार सरकार है, ना कि अस्पताल या डॉक्टर। महामारी का आलम यह है कि संक्रमित होने पर डॉक्टरों को अपने ही अस्पताल में संक्रमित होने पर बेड नहीं मिल रहे हैं। ऐसी कई खबरें चर्चित हुई हैँ। जहिर है, डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी डर के माहौल में जी रहे हैं। उनके सामने दोहरी चुनौती है। देश में मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर भी चिकित्सा समुदाय में हताशा का माहौल है। ऑक्सीजन, बेड, वेंटीलेटर और जरूरी दवाओं की कमी से डॉक्टर दुखी हैं, क्योंकि उनकी आंखों के सामने उनके मरीज दम तोड़ रहे हैं। दूसरी तरफ उनकी अपनी सेहत खतरे में है। सेहत सिर्फ संक्रमण के खतरे से नहीं, बल्कि मानसिक चिंता और दबावों के कारण भी खतरे हैं। ऐसे में होने वाली पीड़ा को समझा जा सकता है। ये उदारता काफी नहीं : ये अच्छी खबर है कि फाइजर कंपनी ने अपने कोरोना वैक्सीन के सात करोड़ डोज भारत को देने का फैसला किया है। कंपनियां ऐसी उदारता दिखाएं, तो कम से कम उन देशों को तुरंत राहत मिल सकती है, जहां कोरोना वायरस ने तबाही मचा रखी है। लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है।

विशेषज्ञों ने अपनी ये राय बार-बार दोहराई है कि कोरोना वायरस पर काबू पाने का एकमात्र उपाय पूरी दुनिया में सबका टीकाकरण है। सवाल है कि ये कैसे संभव होगा? क्या बड़े पैमाने पर वैक्सीन का उत्पादन हुए बिना दुनिया में सबको टीका लगाना संभव है? ऐसा नहीं हुआ, जिन्होंने टीका लगवाया है, वायरस के लगातार हो रहे म्यूटेशन के कारण उनकी सुरक्षा भी जाती रहेगी। असल मुद्दा विश्व व्यापार संगठन (डलूटीओ) के तहत कोरोना वैक्सीन पर से पेटेंट हटाने या स्थगित करने का है। अगर पेटेंट यानी बौद्धिक संपदा अधिकार को हटा दिया जाए, तो जिस फॉर्मूले से कंपनियों ने वैक्सीन तैयार किए हैं, उसकी तकनीक और उन वैक्सीन को बनाने का ज्ञान उन्हें अलग-अलग देशों की वैक्सीन निर्माता कंपनियों से साझा करना होगा। उससे इन वैक्सीन के डोज ज्यादा बड़ी संख्या में और सस्ती दरों तैयार किए जा सकेंगे। ले किन कंपनियां इस मांग का पुरजोर विरोध कर रही हैं। अमेरिका में उन्होंने इसके खिलाफ लॉबिंग में अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। इसके लिए वे लाखों डॉलर खर्च कर रही हैं। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि फाइजर ने अब उदारता दिखाई है, वह सचमुच उदारता है या पेटेंट हटाने की दुनिया में मजबूत हो रही मांग को भोथरा करने की एक चाल है? दुनिया में इस समय वैक्सीन डोज की बेहद कमी है।

जबकि जो डोज फाइजर-बायोएनटेक, मॉडेरना, जॉनसन एंड जॉनसन और एस्ट्रा जेनिका कंपनियों ने बनाए हैं, उनके ज्यादातर हिस्से पर धनी देशों ने कजा कर लिया है। जबकि कोरोना महामारी की नई लहर से भारत सहित कई देश परेशान हैं। बढ़ते मामलों के कारण टर्की को पिछले हफ्ते पहली बार लॉकडाउन लगाना पड़ा। उधर ईरान में एक दिन में सबसे ज्यादा मामले सामने आने का रिकॉर्ड बना है। ब्राजील में बड़ी संख्या में नए संक्रमण और मौतों पर काबू पाना मुश्किल बना हुआ है। दरअसल, समस्या तो पेटेंट हटने के बाद भी बनी रहेगी। इसलिए कि वैसीन उत्पादन की क्षमता सीमित देशों के पास ही है। बहरहाल, इससे दुनिया की लगभग आठ अरब आबादी के पूरे टीकाकरण का रास्ता खुलेगा। असल मुद्दा यही है। ट्रिकल डाउन से तौबा: ट्रिकल डाउन अर्थव्यवस्था का मतलब यह होता है कि अगर धनी तबकों के पास पैसा आता है, तो वह धीरे-धीरे रिस कर निम्न वर्ग तक जाता है। इससे सबकी स्थिति बेहतर होती है। इस आर्थिक सोच के पैरोकार इसे इस रूप में यह भी कहते रहे हैं कि नदी में पानी आता है, तो सबकी नांव ऊपर उठती है। अधिक गंभीर आर्थिक शदावली में इसे वॉशिंगटन कॉन्सेसस कहा जाता है, जिस पर अमेरिका और बाकी दुनिया पिछले तीन से चार दशक से चलती रही है। इसीलिए जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस समझ के विपरीत बात कही, तो उसने सबका ध्यान खींचा। राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल में पहली बार कांग्रेस (संसद) के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए बीते हफ्ते बाइडेन ने कहा- ‘ट्रिकल डाउन इकॉनमिस कभी कारगर नहीं हुआ।

अब समय आ गया है, जब हम नीचे और मध्य स्तरों से अपना विकास करें।’ इस सोच को और आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अति धनी तबकों पर टैस बढ़ाने की जरूरत बताई और कहा कि ऐसा करना अमेरिका में आर्थिक गैर-बराबरी की समस्या को हल करने के लिए जरूरी है। बात सिर्फ जुबानी नहीं है। बल्कि बाइडेन ने इसके पहले अपने बहुचर्चित ‘अमेरिकन जॉस प्लान’ के तहत धनी तबकों पर टैस बढ़ाने का प्रस्ताव कर चुके हैँ। बाइडेन ने अपने भाषण में इस ओर भी ध्यान खींचा कि पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के दौर में हुई टैस कटौती धनी अमेरिकियों के लिए वरदान साबित हुआ। उससे देश में आर्थिक गैर-बराबरी और बढ़ी। बात सिर्फ यहीं तक नहीं रही। बल्कि सरकार की भूमिका या हो, इस मामले में भी बाइडेन ने वह कहा, जो प्रचलित अमेरिकी सोच के उलट है। ये सोच पूर्व राष्ट्रपति रॉनल्ड रेगन के जमाने से प्रचलन मं आई थी। रेगन ने कहा था कि सरकार समस्या का समाधान नहीं, बल्कि खुद एक समस्या है। रेगन ने 1981 में ये बात कही। उसके बाद अमेरिका की तमाम सरकारें इसी सोच से राह पर चलती रही हैं। 1996 में तत्कालीन राष्ट्रपति बिल लिंटन ने कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कहा था कि बिग गवर्नमेंट्स यानी अधिक भूमिका वाली सरकारों का युग खत्म हो गया है। उसके 25 साल बाद उसी मंच से बाइडेन ने कहा कि अब वक्त ये साबित करने का है कि बिग गवर्नमेंट कारगर होती है। तो अमेरिका में सोच बदल चुकी है। बाकी दुनिया में इस बारे में कैसी सहमति बनती है, अब देखने की बात होगी।

शशांक राय
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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