विपक्ष अब तो खुद को संभालें

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पिछले 15 महीनों में हमें मुस्कुराने की बहुत ही कम वजहें मिली है। लेकिन पिछले रविवार अचानक ही दु:ख का यह घेरा टूटा जब भारत के तीन कोनों के तीन बड़े राज्यों से खबर मिली और एक पार्टी, एक आदमी के शासन का हमारा दुस्वप्न भंग हुआ। संघवाद ने शांति से वापसी की। मैं सोचता हूं कि भारत ने शायद अपना मन बना लिया है। अगर कुछ नाटकीय न हुआ तो भाजपा ने अपने पतन की शुरुआत कर दी है और पतन का नेतृत्व वही व्यक्ति कर रहा है, जिसने सात साल पहले गुल्लक को तोड़ा था। 2014 में अकेला घोड़ा रेस में था। क्योंकि यूपीए 2 न केवल सत्ता विरोधी रुझान का सामना कर रहा था, बल्कि उस पर वित्तीय गड़बडिय़ों के भी आरोप थे। उधर नए पीएम मीडिया और देश के प्रिय थे। उनकी शैली पूर्ववर्ती डॉ. मनमोहन सिंह से अलग थी। राजनीति में गांधी परिवार लंबे समय से था। परिवार की चार पीढिय़ों ने कांग्रेस पर शासन किया और कांग्रेस भी थक गई थी। लेकिन, पार्टी जानती थी कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस बदतर हो सकती है। उसके पास सत्ता के अनेक दावेदार थे। गांधी परिवार इसे, एक नैतिक अधिकार जिसे उनके विपक्षी विशेषाधिकार कहते थे, उससे एकजुट रखता था।

परिवार के जो तीन लोग प्रधानमंत्री रहे, उनमें से दो की हत्या हुई थी, इसलिए विशेषाधिकार शायद सही शद नहीं है। लेकिन यह किसी तरह से अटका हुआ था और वह परिवार, जो कभी भारत का गर्व था, उसे चुनावी बयानबाजी के जरिए तब तक घसीटा, जब तक वह बोझ नहीं दिखने लगा। यही भाजपा चाहती थी, क्योंकि उनका न तो कोई इतिहास था और न ही अपने कोई हीरो थे। मोदी हत्वाकांक्षी भारत के नए प्रतीक बन गए। करोड़ों कम पढ़े लिखे, अल्प रोजगार वाले युवा उनमें अपने सपनों को पूरा होते हुए देख रहे थे। वह राजनीति के सलमान थे। गांधी हमेशा पहुंच से बाहर रहे। इनकी तुलना में मोदी, हर टीवी स्क्रीन पर हर दिन मौजूद थे। वह अंतरंगता के साथ उस भाषा में बात करते थे, जो लोग आसानी से समझते थे। वह राजनीति को सड़क पर ले आए थे। इसके बाद या हुआ सभी जानते हैं। मोदी ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। चापलूस मीडिया अभी भी है, लेकिन एक दूरी पर। उनके मंत्री तक शिकायत करते हैं कि उनकी कोई पहुंच नहीं है। अमित शाह ही उनके एकमात्र विश्वस्त हैं। भारत में अचानक नोटबंदी, जीएसटी को लागू करने में खामी या फिर देश को घुटनों पर लाने वाली महामारी से गलत तरीके से निपटना आदि अब इतिहास के हिस्से हैं।

उनके डराने वाले समर्थक भी इतिहास का हिस्सा हैं। वे उत्तेजक भाषण देते हैं, अंतरधार्मिक जोड़ों पर लव जिहाद के नाम पर हमला करते हैं। सोशल मीडिया पर असहमति की हर आवाज को ट्रोल करते हैं। लेकिन, भाजपा का बड़ा खेल यह कभी नहीं था। यह भारत को बौद्धिकता रहित बनाना है। एक तरह से माओ की सांस्कृतिक क्रांति की तरह। इसीलिए बंगाल पर कजा करने के लिए उन्होंने बहुत प्रयास किया। पहले टीएमसी के असंतुष्टों को लिया। फिर वे जत्थों के साथ राज्य पर झपटे। मोदी और शाह ने किसी भी अन्य जगह से अधिक रैलियां बंगाल में कीं। लेकिन, कुछ काम नहीं आया। देश को बौद्धिक रहित बनाने के लिए अभी इंतजार करना होगा। इसकी बजाय अब हम संघवाद फलते-फूलते और क्षेत्रीय दलों का उभार देखेंगे। कोविड की दूसरी लहर के बावजूद महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में एमवीए अच्छा कर रही है। अगर कांग्रेस महाराष्ट्र की तरह पिछली सीट लेना जारी रखेगी तो हम अपनी महान भूमि पर लोकतंत्र को फिर फलते-फूलते देख सकते हैं। और अब ममता ने घृणा की राजनीति के महिषासुर का वध कर दिया है, शायद वह पहला कदम बढ़ा सकती हैं।

प्रीति नंदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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