नंदीग्राम में हिंसा निंदनीय

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प. बंगाल में ममता बनर्जी का पार्टी तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत के बाद नंदीग्राम में हिंसा शर्मनाक है, निंदनीय है। इस चुनावी हिंसा में पांच लोग मारे गए हैं। नंदीग्राम विधानसभा सीट का परिणाम जारी करने में जरूर कुछ गड़बड़ी हुई कि पहले कहा गया कि ममता बनर्जी 1200 वोट से जीत गई हैं और कुछ देर के बाद ही चुनाव आयोग ने सुधार करते हुए कहा कि इस सीट से ममता के प्रतिद्वंद्वी व भाजपा उमीदवार शुभेंदु अधिकारी 1600 से अधिक वोटों से जीत गए हैं। इतनी संवेदनशील सीट पर परिणाम जारी करने की हड़बड़ी नहीं होनी चाहिए थी। सबकुछ ठोक बजाकर अंतिम परिणाम जारी करना चाहिए था। चुनाव आयोग को गंभीरता का परिचय देना चाहिए था। टीएमसी व भाजपा दोनों के लिए प्रतिष्ठा बन चुकी नंदीग्राम सीट से जीत की घोषणा के बाद हार के ऐलान को टीएमसी कार्यकर्ताओं के लिए पचा पाना मुश्किल रहा होगा, लेकिन आक्रोश हिंसा के रूप में प्रकट नहीं होना चाहिए। चुनाव आयोग ने अपना काम किया है, भूल किसी से भी हो सकती है।

चुनाव आयोग अगर अपना काम ठीक से नहीं करता तो ममता की पार्टी टीएमसी को इतनी बड़ी जीत नहीं मिलती। यह बात टीएमसी को सोचनी चाहिए। टीएमसी पहले से ही सत्ता में है, इस बार पार्टी ने हैट्रिक लगाई है और तीसरी बार प्रदेश में सरकार बनाने जा रही है, तो उसे दिल बड़ा रखना चाहिए और अपनी नेता ममता बनर्जी की हार को तटस्थ भाव से देखना चाहिए। वोट काउंटिंग में अगर किसी दल को गड़बड़ी की आशंका है तो वह चुनाव आयोग से शिकायत कर सकता है, अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। हिंसा विरोध जताने का तरीका नहीं है। नंदीग्राम में भाजपा के दफ्तर में तोडफ़ोड़ अच्छी बात नहीं है। किसी दल के कार्यकर्ता के लिए अपने नेता की हार से दु:ख होता है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं हिंसा से दु:ख प्रकट करे। भाजपा ने टीएमसी को जिम्मेदार ठहराया है। इस हिंसा की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। यह दायित्व बंगाल की नई सरकार का है, जो एक बार फिर ममता बनर्जी के हाथों में होगी। ममता ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील जरूर की है, लेकिन उन्होंने आरोप भी लगाया है कि मुझे नंदीग्राम के निर्वाचन अधिकारी ने बताया कि फिर से मतगणना का आदेश उनकी जिंदगी को खतरे में डाल सकता है।

इस वजह से रिकाउंटिंग नहीं कराई गई। ममता अगर आरोप के बजाय चुनाव अधिकारी को सुरक्षा मुहैया करातीं, उन्हें पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के लिए कहतीं और अदालत जातीं, तो यह ज्यादा उचित होता। यूं तो चुनाव में हिंसा बंगाल में नई नहीं है। इसी चुनाव के आठों चरणों में कुछ न कुछ हिंसा हुई। करीब दो दर्जन लोगों की जान चली गई। बंगाल में जब भी चुनाव होता है, बंगाल लहूलुहान होता है। 1967 में जब कांग्रेस से वाम गठबंधन की सरकार बनी, तभी हिंसा हुई थी। उसके बाद 1970, 1971 में भी हिंसा हुई। 1990 में लेफ्ट के शासन के दौरान पंचायत चुनाव में 400 लोगों की हत्या का आरोप लगा। एक दावे के मुताबिक, 1977 से 2009 तक 55,000 सियासी हत्याएं हुईं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2016 के विस चुनाव में 205 लोग चुनावी हिंसा में मारे गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में 693 हिंसक घटनाएं हुईं, जिसमें 11 लोगों की जान गई। अब समय आ गया है कि बंगाल हिंसक चुनाव से बाहर आए, राज्य में शांतिपूर्ण माहौल बने। ममता बनर्जी की नई सरकार को इसकी कोशिश करनी चाहिए।

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