वायरस राजनीतिक सीमाएं नहीं जानता

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अपने लंबे राजनीतिक कॅरिअर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दृश्यों, नारों और एक तीखी साउंडबाइट का सही समय पर इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर ली है, जो इस मल्टीमीडिया युग में यह उनके नेतृत्व का खास हथियार रहा है। लेकिन पिछले हफ्ते उनकी इस तकनीक ने काम नहीं किया। जिस दिन कोरोना के रोजाना आने वाले मामलों ने दो लाख का आंकड़ा पार किया, प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल में बड़ी चुनावी रैली करने में व्यस्त थे। ऐसा लग रहा था कि प्रधानमंत्री देश में कोरोना लहर की वास्तविकता से दूर, किसी और दुनिया में हैं। अपने सार्वजनिक संवादों में मोदी लगातार लोगों से दो गज की दूरी बनाने कहते रहे और खुद खुशी-खुशी भीड़ जुटाते रहे। यह दृश्य और संदेश झकझोरने वाले हैं।

प्रधानमंत्री से बंगाल जैसे राज्य में प्रचार न करने की उम्मीद करना ऐसा ही है, जैसे विराट कोहली से वर्ल्ड टेस्ट चैम्पियनशिप के फाइनल से हटने को कहना। चुनाव आयोग द्वारा आठ चरण के चुनाव को छोटा करने से इनकार करने का मतलब है कि राजनीतिक पार्टियों के लिए मैराथन रेस दौड़ना जरूरी हो गया था। एक पक्के प्रचारक के रूप में मोदी कभी भी आक्रामकता से सफर करने में पीछे नहीं हटते। यह चुनाव जीतने का उनका स्टैंडर्ड फार्मूला है।

मोदी और अमित शाह कोई कसर नहीं छोड़ते। लेकिन असाधारण समय में हर फार्मूला में बदलाव करना चाहिए। मसलन, क्या प्रधानमंत्री भाजपा की व्यापक डिजिटल पहुंच का इस्तेमाल संबोधन के लिए नहीं कर सकते थे? ऐसी मिसाल पेश करना जरूरी है, जिसे बाकी लोग अपनाएं। सच्चे नेतृत्व का अर्थ है बाकियों से आगे निकलना, न कि उनके जैसा हो जाना। दुर्भाग्य से, एक अति-राजनीतिकरण वाला और अति-ध्रुवीकृत समाज, लगातार राजनीतिक गतिविधियों के शोर के जाल में फंसा रहता है। यही वह जाल है, जिसमें मोदी सरकार ऐसे समय में फंस गई है, जब सिर्फ कोविड का सामना करने से जुड़े फैसलों पर ध्यान होना चाहिए था।

पिछले साल केंद्र कई युद्धों में उलझा था, जिसमें उसकी राजनीतिक पूंजी गलत समय पर खर्च हुई। फिर वह चीन के साथ सीमा विवाद हो या घर में विपक्षी राज्य सरकारों को गिराने के प्रयास। अब इस साल बंगाल में करो या मरो वाला युद्ध है। चीन से संघर्ष के लिए विश्वासघाती पड़ोसी को दोषी ठहराया जा सकता है, लेकिन किसानों के संघर्ष के बारे में क्या कहेंगे? क्या ऐसे समय में विवादास्पद कृषि विधेयक को संसद पर थोपना जरूरी था, जब जनस्वास्थ्य आपातकाल से लड़ने के लिए आपसी सहमति बनाना अत्यावश्यक था?

कई राजनीतिक व्यवधानों के बीच कोरोना से नजर हट गई। नवंबर में बिहार चुनाव जीतने के बाद लगा जैसे मोदी सरकार को लगने लगा हो कि राजनीतिक एजेंडा सब पर जीत दिला सकता है। अगर नागरिक कोविड से थकने के बाद लापरवाह होने के दोषी हैं तो केंद्र भी ‘कोविड अभिमान’ का शिकार हो गया कि सबकुछ नियंत्रण में है और उसने चेतावनियां नजरअंदाज कर दीं। बिना दूरदर्शिता वाली टीकाकरण नीति इसका अच्छा उदाहरण है कि जब और बुरी स्थिति के लिए तैयारी करना जरूरी था, तब सरकार बंद कमरों में कोरोना को जीतने पर वाहवाही करने वालों से घिरी थी।

उदाहरण के लिए ऐसा क्यों हुआ कि मार्च के तीसरे सप्ताह में भारत ने नागरिकों की टीका लगाने की तुलना में ज्यादा टीके निर्यात किए? (76 देशों को 6 करोड़ टीके भेजे गए, जबकि 5.2 करोड़ भारतीयों का टीकाकरण हुआ) कूटनीतिक लाभ और ‘विश्वगुरु’ की छवि बनाने के लिए वैक्सीन ‘सौम्य शक्ति’ को इस्तेमाल करने की इच्छा को तब तक के लिए रोका जा सकता था, जब तक घरेलू स्थिति पूरी तरह नियंत्रित नहीं हो जाती।

वैक्सीन के विकल्प सीमित कर, पर्याप्त कंपनियों को वैक्सीन सप्लाई के एडवांस ऑर्डर न देकर, हर राज्य में वैक्सीन वितरण के लिए सख्त ‘कोटा-परमिट’ राज अपनाकर, प्राइवेट सेक्टर के निर्माताओं को पर्याप्त प्रोत्साहन न देकर और सभी आयु समूहों के टीकाकरण में लचीलापन न रखकर, एक लालफीताशाही वाली भूल-भुलैया तैयार की गई, जिसने टीकाकरण की शुरुआत में तेजी नहीं आने दी। दुनिया का अग्रणी टीका निर्माता देश, अब कमी पूरी करने के लिए आयात की तरफ भाग रहा है, जो बताता है कि महामारी को रोकने का युद्ध कितना लंबा और जटिल है।

बेशक विपक्ष सारा दोष मोदी सरकार पर मढ़ना चाहेगा। भले ही राहुल गांधी ने केंद्र को कोविड के बुरे प्रबंधन को लेकर चेतावनी दी हो, लेकिन क्या आप यह कह सकते हैं कि कांग्रेस या विपक्षी नेतृत्व वाले राज्यों में भाजपा शासित राज्यों से बेहतर स्थिति है? वायरस राजनीतिक सीमाएं नहीं जानता और वायरस का सामना करने का कोई जादुई मंत्र नहीं है। लेकिन समाधान की ओर पहला कदम है समस्या को स्वीकार करना, गलती मानना और उसे सही करना।

इसीलिए वैक्सीन नीति में किया गया हालिया बदलाव सही दिशा में उठाया गया कदम है। हालांकि, मोदी सरकार अब कोविड प्रबंधन की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर नहीं डाल सकती। अगर केंद्र ‘नए’ भारत में होने वाली किसी चीज का श्रेय लेता है, तो उसे गलती करने का दोष भी साझा करना चाहिए। जब वह सत्ता का केंद्रीकरण करता है और फैसलों का सूक्ष्म-प्रबंधन करता है, लेकिन प्रधानमंत्री केयर फंड से कोविड-19 पर खर्च हुए पैसों की मूलभूत जानकारी देने से भी मना कर देता है, तो उसे तब भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, जब चीजें योजना के अनुसार न हों। इस बार जिम्मेदारी शीर्ष नेतृत्व की ही है।

राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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