बंगाल में 8 फेज में चुनाव क्यों ?

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पश्चिम बंगाल में चल रहे चुनावों के बीच लोग मुझसे पूछ रहे हैं कि वहां ट्रेंड क्या है, वहां हवा किस दिशा में चल रही है। मैं जानता हूं कि चुनाव आयोग ने किसी भी तरह के एग्जिट पोल डेटा के प्रसार पर रोक लगाई है (हालांकि मैं कोई एग्जिट पोल नहीं कर रहा, CSDS पोस्ट पोल सर्वे कर रहा है), इसलिए मैं इस सवाल से हरसंभव बच रहा हूं। लेकिन चुनाव आयोग पश्चिम बंगाल में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करने की अपनी अक्षमता के सवाल से नहीं बच सकता।

आखिरी क्यों 8 चरणों में चुनावों की योजना बनाने के बावजूद चुनाव आयोग ऐसा नहीं कर सका? पहले 4 चरणों में कई मतदान केंद्रों पर हिंसा हुई, जिसमें कुछ मौतें भी हुईं। चूंकि राजनीतिक तापमान बढ़ रहा है, बाकी चरणों में भी TMC और BJP कार्यकर्ताओं के बीच झड़प से इनकार नहीं किया जा सकता है।

कई चरणों में, कुछ दिनों से अंतर से चुनाव रखा गया, ताकि सुरक्षा बलों को एक लोकेशन/जिले से दूसरे में जाने का समय मिल सके और स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए हर मतदान केंद्र पर पर्याप्त बल तैनात किया जा सके। लेकिन जमीनी हकीकत के दृश्य बताते हैं कि जिन केंद्रों पर हिंसा हुई वहां मतदान केंद्र के अंदर सुरक्षाबल दिखाई दिए, लेकिन बाहर नहीं।

यह सर्वविदित है कि हिंसा ज्यादातर मतदान केंद्र के बाहर ही होती है। ऐसे में चुनाव आयोग को जवाब देना चाहिए कि क्या एक महीने तक, आठ चरणों में चुनाव कराने की योजना एक गलती है, एक ऐसा फैसला है जिस पर जमीनी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पर्याप्त विचार नहीं किया गया? कई चरणों में चुनाव कराने के अपने फायदे हैं, लेकिन कुछ चुनौतियां भी हैं, जिन पर विचार करने में चुनाव आयोग असफल रहा।

साथ ही क्या कई गांवों में तनाव के संकेत स्पष्ट होने के बावजूद सुरक्षाबलों को मतदान केंद्र के बाहर तैनात न करना भी योजना में एक गलती थी? राज्य में पहले भी जब कई चरणों में चुनाव हुए हैं, चुनाव आयोग ने सुरक्षाबलों के आ‌वागमन के लिए हर चरण के बीच कुछ दिनों का अंतर रख उचित काम किया, लेकिन वह यह आकलन करने में असफल रहा कि इन दिनों का इस्तेमाल असामाजिक तत्व भी एक जगह से दूसरी जगह में आने के लिए कर सकते हैं।

पश्चिम बंगाल में चरणबद्ध चुनाव कराने का उचित कारण हो सकता है लेकिन यह पूछा जाना चाहिए कि 8 चरणों के पीछे क्या तर्क है। कम चरणों में चुनाव क्यों नहीं हो सकते, जिससे शायद हिंसा को कम करने में मदद मिल सकती क्योंकि मतदान कम दिन होता और चुनाव प्रक्रिया भी कम समय में पूरी हो जाती? हमारे पास चुनाव के विभिन्न चरणों में हुए हिंसा के मामलों के आंकड़े नहीं है, लेकिन सामान्य समझ कहती है कि पिछले तीन चरणों की तुलना में चौथे चरण में हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं।

कई चरणों में चुनाव बेशक सुरक्षा बलों को पर्याप्त संख्या में हर मतदान केंद्र तक पहुंचने में मदद करते हैं, लेकिन इसी के साथ एक महीने तक चलने वाला कई चरणों का चुनाव हिंसा की घटनाओं को फैलने और बढ़ने का अवसर भी दे देता है क्योंकि एक-दूसरे से लड़ रहे विभिन्न दलों के पार्टी कर्यकर्ता, एक चरण का बदला दूसरे चरण में लेते हैं।

विभिन्न चरणों के बीच का समय न सिर्फ सुरक्षा बलों की तैनाती की योजना बनाने में सुरक्षा अधिकारियों की मदद करता है, बल्कि यह पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी एक-दूसरे से बदला लेने की योजना बनाने का समय दे देता है। चुनाव को एक चरण में कराने पर शायद यह सब होने की आशंका कम हो जाए क्योंकि पार्टी कार्यकर्ताओं को हिंसा की योजना बनाने का उतना वक्त नहीं मिलेगा। अगर हिंसा होती भी है तो वह त्वरित होगी, पहले से बनाई योजना के तहत नहीं।

बहु-चरण चुनाव के कारण प्रचार अभियान भी बहुत लंबे समय तक चलता है क्योंकि किसी चरण में जिन विधानसभा सीटों पर चुनाव होना होता है, वहां मतदान होने से 48 घंटे पहले तक चुनाव प्रचार चलता रहता है। उन विधानसभा सीटों में भी चुनाव प्रचार पर कोई रोक नहीं होती, जहां आगे के चरणों में चुनाव होने हैं। चरणबद्ध चुनाव में यह नियम की तरह हो गया है कि जिस दिन किसी और सीट पर मतदान चल रहा होता है, तब उसी दिन पार्टियों के वरिष्ठ नेता ऐसी सीट पर रैली जरूर करते हैं, जहां आगे की किसी तारीख में चुनाव होना है।

नेताओं के लिए यह भी परंपरा बन गई है कि वे इन रैलियों में अपने भाषण में प्रतिद्वंद्वी पार्टी पर हिंसा में शामिल होने का आरोप जरूर लगाते हैं। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का गुस्सा और बढ़ता है और इससे कभी-कभी मतदान के दिन हिंसा की घटनाएं हो जाती हैं। एक दिन में चुनाव या कम से कम चरणों में चुनाव से निश्चित रूप से प्रचार का समय भी कम होगा, जिससे न सिर्फ राजनीतिक तापमान को बढ़ने से रोकने में मदद मिलेगी, बल्कि मतदान के दिन हिंसा को भी कम किया जा सकेगा। चुनाव का कार्यक्रम तय करते समय चुनाव आयोग को चरणबद्ध चुनावों के फायदे और नुकसानों पर विचार जरूर करना चाहिए।

संजय कुमार
(लेखक सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएडीएस) में प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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