राजकाज के रहनुमाओं के सार्वजनिक उद्गार या काम देश और समाज के भविष्य के लिए महत्व रखते हैं। देश के विभिन्न कोने से प्रायः ऐसी ध्वनियां गूंजती हैं, जो प्रमाण हैं कि मुल्क की एकता का मर्म, अब भी हम समझ नहीं पाए हैं। हजारों वर्ष बाद भारत की यह एकता, संघीय ढांचा, गांधी, पटेल और उनकी पीढ़ी की सौगात है। आजादी के बाद से ही न जाने कितने कयास लगे।
1960 में सेलिग हैरिसन की पुस्तक आई, ‘इंडियाः द मोस्ट डेंजरस डिकेड्स अहेड’। पर आपसी भारतीय मनीषा हर चुनौती का समाधान ढूंढने में कामयाब रही। इसकी वजह है, अतीत से हमने सीखा है। जो अतीत को अनदेखा करते हैं, भविष्य की खाई खोदते हैं। विल डुरंट की रचना ‘द स्टोरी ऑफ सिविलाइजेशन’ विश्व प्रसिद्ध है।
इस लेखन के दौरान 19वीं सदी के तीसरे दशक में दुनिया घूमकर वे भारत आए, ‘विश्व सभ्यता के इतिहास’ में भारत का प्रसंग जोड़ने। भारत घूमकर वे विचलित हो गए। कहते हैं, ‘भारत के हालात देखकर दुनिया की सभ्यताओं पर अपना शोध कुछ अवधि के लिए मैंने स्थगित किया, ताकि दुनिया को भारत के बारे में बता सकूं’।
230 पन्नों में भारतीय पीड़ा को उन्होंने स्वर दिया ‘द केस फॉर इंडिया’ (1930) में। उन्होंने लिखा, ‘मानव जाति का 5वां हिस्सा, जिस गरीबी, दमन और जलालत की स्थिति में है, धरती पर वह कहीं और नहीं है। यह देखकर मैं आतंकित हूं।’
भारत के सुंदर भविष्य के लिए, हर भारतीय को ऐसे साहित्य का पुनर्पाठ करना चाहिए। इंसानियत, विवेक और अंतरात्मा के जिस स्तर से डुरंट, भारत की वेदना कहते हैं, वह सिहरन पैदा करता है। भारत की यह अधोगति क्यों हुई? विद्वानों का एक मत रहा है, राजनीतिक एकता नहीं रही। भौतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक स्तर पर हजारों वर्ष पहले, जो सभ्यता दुनिया से बहुत आगे थी, वह आपसी कलह से लाचार, बेबस और असहाय हो गई।
हाल में दो और पुस्तकें पढ़ीं। पहली, नगेंद्रनाथ गुप्त की ‘पुरखा पत्रकार का बाइस्कोप’। 150 साल पहले नगेंद्रनाथ गुप्त, पत्रकार हुए। वे विवेकानंद के सहपाठी रहे। जाने माने हिंदी पत्रकार, लेखक, अनुवादक अरविंद मोहन ने इसका सुंदर अनुवाद किया है। सामयिक इतिहास का यह अनमोल संकलन है।
रामकृष्ण परमहंस के साथ नौका विहार से लेकर, कांग्रेस का जन्म, राष्ट्रीय आंदोलन के उभार, आर्य समाज, ब्रह्म समाज और रामकृष्ण मिशन के बनने-बढ़ने को नजदीक से देखने वाले रहे नगेंद्रनाथ गुप्त।
उनकी किताब करवट लेते भारत या पुनर्जागरण के दौर का दस्तावेज है। यह भविष्य गढ़ने की ऊर्जा देता है। किस अग्निपरीक्षा से गुजर कर भारत आज यहां है? इसी क्रम में यशस्वी IAS रहे ईश्वरचंद्र कुमार की नई पुस्तक ‘मेरी प्रशासनिक यात्रा की स्मृतियां’ पढ़ी। यह लगभग साढ़े तीन दशकों (1961-1994) का वर्णन है। उनकी चर्चित किताब रही है ‘लीजेंड्री पब्लिक सर्वेंट’।
आजादी के बाद से अपनी नौकरी तक, भारतीय नौकरशाही, उसकी कार्य संस्कृति पर पैना विश्लेषण। 19वीं सदी के दूसरे, तीसरे दशक के अंग्रेजी राज के देश के अलग-अलग प्रांतों के आंकड़े, बताते हैं कि इस मुल्क को किन सुनियोजित नीतियों से बदहाल बनाया गया?
इतिहास के इन तथ्यों का भारतीयों द्वारा प्रायः पुनर्स्मरण क्यों जरूरी है? पुलित्जर पुरस्कार विजेता विल डुरंट की एक और पुस्तक है, ‘फॉलेन लीव्स’। उसमें वे थ्यूसीदाइदीज (एथेंस-यूनान के मशहूर इतिहासकार) के हवाले से कहते हैं कि इतिहास उदाहरणों से बताया जाने वाला दर्शन है। वर्तमान तो हर क्षण मर रहा है। अतीत में बदल रहा है। अतीत ही जीवित रहता है। वर्तमान, अतीत से प्रस्फुटित क्षण या पल है। हर इंसान, अपने अतीत की कड़ी का विस्तार है।
सृष्टि विकास की अगली कड़ीभर। दार्शनिक, वैज्ञानिक और विजनरी पुलर ने कहा है कि इतिहास, एक युवा को अनुभवों से वृद्ध या वयस्क बनाता है। बिना शरीर में झुर्रियों को पैदा किए। फिर आगे डुरंट कहते हैं कि आज की पीढ़ी (1930) खबरों को बहुत महत्व देती है। गुजरते पलों की चीजों को जानने बेचैन रहती है। जीवंत अतीत के लिए उसके पास समय नहीं।
हम खबरों में डूबे हैं। पर इतिहास के बारे में दरिद्रता जैसी स्थिति है। वर्तमान की चीजों को संवारने की दृष्टि इतिहास ही देता है, ताकि भविष्य सुनहला हो सके। भारतीय पुरखों की पीड़ा से गुजरकर ही भारत को नया रूप देने वाले क्रांतिकारियों, देशभक्तों, राजनेताओं के इरादे फौलादी हुए और हजारों वर्ष के गुलामी के बाद, हमें खुली हवा में सांस लेने का यह अनमोल पल दिया है। कम से कम इससे उऋण होने के लिए हम भारतीय इतिहास का दरस-परस करते रहें और ऊर्जा पाते रहें।
हरिवंश
(लेखक राज्यसभा के उपसभापति हैं ये उनके निजी विचार हैं)