क्या भारत में अब सचमुच कानून का राज बचा है? जब मंत्री पदों पर आसीन लोग खुद लोगों को कानून अपने हाथ में लेने के लिए प्रोत्साहित करें और इसकी उन्हें कोई कीमत ना चुकानी पड़े, तो यही माना जाएगा कि कम से कम सत्ताधारी नेताओं की निगाह में कानून के राज का कोई मोल नहीं है। हालांकि ये कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, लेकिन मौजूदा हाल में इस पर जोर देना जरूरी है कि कानून और संविधान की रक्षा मंत्रियों का दायित्व है। इसलिए भी कि वे इनकी रक्षा की शपथ लेकर अपने पद पर बैठते हैं। लेकिन यह बात आखिर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह से कौन पूछेगा कि या वे सचमुच ये शपथ निभा रहे हैं? सिंह ने अपने लोकसभा क्षेत्र बेगूसराय में एक जन सभा में लोगों से उन्होंने कहा कि अगर अधिकारी उनकी बात नहीं सुनते हैं, तो उन्हें ‘बांस से मारिए।’ केंद्र में मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी विभागों के मंत्री सिंह ने कहा कि उन्हें असर शिकायतें मिलती हैं कि अधिकारी जनता की शिकायतों को नहीं सुनते हैं। इस पर गिरिराज सिंह का क्या फॉर्मूला है, उस पर विस्तार से ध्यान दिया जाना चाहिए।
सिंह ने कहा- ‘मैं लोगों से कहना चाहता हूं कि इतनी छोटी बात के लिए मेरे पास यों आते हैं? सांसद, विधायक, गांव के मुखिया, डीएम, एसडीएम, बीडीओ- इन सभी का कर्तव्य जनता की सेवा करना है। अगर वे आपकी बात नहीं सुनते हैं तो दोनों हाथों से बांस उठाइए और उनके सिर पर दे मारिए। अगर इससे भी काम नहीं होता है, तो गिरिराज आपके साथ है।’ केंद्रीय मंत्री की इस बात पर सभा में उपस्थित लोगों ने तालियां बजाईं। लेकिन यह लोगों को भड़काने जैसा बयान है। अगर केंद्र सरकार और सााधारी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व की निगाह में कानून की इज्जत होती, तो इस बयान के लिए गिरिराज सिंह को जवाबदेह बनाते। आखिर इस बयान का यह भी मतलब है कि केंद्र और राज्य की एनडीए सरकारों का अपने अफसरों पर काबू नहीं है। तो फिर यह कैसा शासन है? क्या इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि बिहार में एक तरह की अराजकता फैली हुई है, जिस पर किसी का काबू नहीं है? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सवाल पूछने पर पत्रकारों से कहा कि ‘आपको गिरिराज सिंह से पूछना चाहिए कि या इस तरह की भाषा का उपयोग करना न्यायसंगत है।’ यानी वे कुछ नहीं पूछेंगे!
कानून का गला तो सरकार खुद घोंट रही है। देख लीजिए भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने 2015 में 55 रिपोर्टों पेश की थीं। 2020 में ये संख्या घट कर 14 रह गई। असल में नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में रिपोर्टों की संख्या में लगातार गिरावट आई है। गौरतलब है कि ये सरकार सत्ता में आई, तब तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कैग की भूमिका पर सवाल खड़े किए थे। कहा था कि ये एजेंसी सरकारी योजनाओं पर अमल में बाधक बन जाती है। तो साफ है कि जैसाकि अन्य कई मामलों में हुआ है, धीरे- धीरे सरकार ने इस एजेंसी पर भी लगाम लगा दी है। ऐसा करने के पीछे मंशा साफ है। आखिर सााधारी भारतीय जनता पार्टी को यह याद होगा कि कैसे सीएजी की बोफोर्स घोटाले में आई रिपोर्ट राजीव गांधी सरकार के पतन का कारण बनी। फिर इसी संस्था की 2-जी स्पेट्रम और कोयला खदान आवंटन में आई रिपोर्टों ने मनमोहन सिंह सरकार की साख में पलीता लगा दिया। तो फॉर्मूला साफ है- ना रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी। ना जांच होगी, ना रिपोर्ट आएगी और ना कोई मामला बनेगा। मोदी सरकार किस तरह कैग को लेकर असहज रही है कि इसकी एक और मिसाल सामने आई है।