संसदीय पत्रकारिता का बड़ा नुकसान

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तो संसद चैनल का फैसला हो ही गया। दो-ढाई बरस से इस पर कवायद चल रही थी कि भारत की संसद को आखिर दोनों सदनों के लिए अलग-अलग चैनल यों चाहिए? यह बहस सोलह बरस पहले भी चली थी, जब लोकसभा टेलिविजन प्रारंभ करने का निर्णय हुआ था। उस समय भी भारतीय जनता पार्टी का रुख राज्यसभा के अपने अलग चैनल के पक्ष में नहीं था। इसलिए भैरोंसिंह शेखावत के उप राष्ट्रपति रहते इसकी फाइल ठंडे बस्ते में पड़ी रही। वे राज्यसभा के सभापति भी थे। इस वजह से अंतिम निर्णय का हक भी उन्हीं का था।

उनके बाद आए उप राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने इसमें रुचि ली और भारत संसार के उन चंद मुल्कों में शुमार हो गया, जिनके दोनों सदनों के अपने अलग-अलग चैनल थे। इन पंक्तियों के लेखक को संस्थापक, कार्यकारी संपादक और कार्यकारी निदेशक के रूप में राज्यसभा का अपना चैनल शुरू करने का सुअवसर मिला। बताने की जरूरत नहीं कि चैनलों के घटाटोप में यह बेहद चमकदार और धमाकेदार था। इसे करोड़ों दर्शकों का प्यार मिला और इसकी ख्याति समंदर पार जा पहुंची थी। आज जिस काम के लिए निजी चैनल साल भर में दो-ढाई सौ करोड़ रुपये खर्च करते हैं, वही काम सत्तर- अस्सी करोड़ रुपये साल में हम लोग करते रहे। राज्यसभा टीवी की चर्चाओं में सभी दलों का प्रतिनिधित्व होता था।

इसके बुलेटिन प्रामाणिक थे। कला-संस्कृति पर इसके कार्यक्रम बेजोड़ थे और हिन्दुस्तान में पहली बार पंद्रह करोड़ से अधिक आदिवासियों को इस चैनल ने स्वर दिया था। यह वत अब इस चैनल के गीत गाने का नहीं है और न ही मातम का है। भारतीय शिक्षा प्रणाली की गाड़ी वैसे ही पटरी से उतरी हुई है और जीवन के हर क्षेत्र के पेशेवरों को गणतंत्र की कोई बुनियादी शिक्षा नहीं देती। ऐसी सूरत में लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर संसद की जिमेदारी बनती थी कि वह हिन्दुस्तान के संवैधानिक ढांचे के बारे में जन-जन को जागरूक करें। अपनी शासन प्रणाली की बारीकियों को गंभीरता से समझाए। यही काम लोकसभा और राज्यसभा टीवी कर रहे थे। संसद चैनल जब अस्तित्व में आएगा तो कई मुश्किलें बढ़ जाएंगी। दोनों सदनों के करीब आठ सौ सांसदों की आवाज के साथ न्याय कठिन हो जाएगा।

इसके अलावा साल भर काम करने वाली दर्जनों समितियों का कामकाज आम नागरिक तक संप्रेषित करने में बाधा आएगी। जागरूक और जिमेदार लोकतंत्र बनाने की दिशा में उठाए गए कदम थम जाएंगे। या इससे आम अवाम को प्रशिक्षित करने की गति मंद नहीं पड़ जाएगी? भारतीय संसदीय पत्रकारिता के नजरिये से यह एक बड़ा नुकसान है। अफसोस कि मौजूदा दौर में समाज की ओर से जायज, पेशेवर और नैतिक हस्तक्षेप भी बंद हो गया है। किसी भी लोकतंत्र में अगर सामाजिक भागीदारी नहीं हो तो उसके विकलांग होने में देर नहीं लगती। जागरूक नागरिक का कर्तव्य सिर्फ वोट डालना ही नहीं है। यह कोई किराने की दुकान नहीं है, जिसका कभी भी शटर गिरा दिया जाए। समाज का अंग होने के नाते पत्रकारिता का दखल भी इसमें होना जरूरी है।

जमानत सुखद खबर: 22 बरस की दिशा रवि को दिल्ली की एक अदालत से जमानत सुखद खबर है। यह असहमति के सुरों की रक्षा के लिए सही समय पर आया सही फैसला है। इससे एक तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षण मिलता है तो दूसरी ओर यह भी सुनिश्चित होता है कि हिंदुस्तान की जहूरियत का मजबूत खंभा न्यायपालिका अभी भी किसी किस्म के दबाव से मुक्त है। हो सकता है कि फौरी तौर पर उसका कुछ नुकसान भी हो जाए, लेकिन अंतत: वह विजेता की शल में सामने आता है। भारतीय पत्रकारिता को यह तथ्य समझने की आवश्यकता है। असहमत होना किसी भी जिमेदार और सभ्य लोकतंत्र की पहली शर्त है और इसको संरक्षण मिलना ही चाहिए। माननीय न्यायालय ने दिशा रवि के मामले में साहसिक और संवैधानिक टिप्पणियां की हैं।

भारतीय संस्कृति में वेदों को सर्वोच्च प्रतिष्ठा प्राप्त है और ऋ ग्वेद की ऋचाओं का संदर्भ इस देश के चरित्र को स्थापित करता है। कोर्ट का यह कथन पूरी तरह सटीक है कि हुकूमत के जख्मी गुरूर पर मरहम लगाने के लिए किसी को राजद्रोह के आरोप में कारागार नहीं पहुंचाया जा सकता। इस व्यवस्था से हिंदुस्तान की पत्रकारिता पर इन दिनों मंडरा रहे अवसाद और निराशा के वे बादल भी छंट सकते हैं, जो आम अवाम को यह धारणा बनाने का अवसर देते हैं कि इन दिनों मुल्क का मीडिया अपनी साख खो रहा है। संसार में कोई सभ्य समाज पत्रकारिता का अपनी राह से विचलित होना पसंद नहीं करेगा। असल में आज ऐसे तत्वों का चारों तरफ बोलबाला दिख रहा है, जो अपनी आलोचना पसंद नहीं करते। इस प्रवृति से वे खुद को और लोकतंत्र दोनों को क्षति पहुंचाते हैं। उन्हें तात्कालिक लाभ भले ही मिल जाए, मगर वे अपने ही देशवासियों से असुरक्षित महसूस करते हैं। भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के लिए जरूरी है कि वह इनको बेनकाब करे-ताला लगाके आप हमारी जबान को/ कैदी न रख सकेंगे जेहन की उड़ान को/असहमति के सुरों की रक्षा करना ही असली राष्ट्रीय कर्तव्य है।

राजेश बादल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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