उत्तराखंड : बिना जमीन के ही हकदारी

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पिछले दिनों उत्तराखंड सरकार की कैबिनेट ने महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता के लिए एक प्रस्ताव पास किया है। इसमें महिलाओं को उनके पति की संपत्ति में सह-खातेदार बनाने का प्रावधान किया जा रहा है। अगर यह प्रस्ताव कानून का रूप लेता है तो उत्तराखंड देश का पहला राज्य होगा जहां महिलाओं को जमीन पर मालिकाना हक मिल सकेगा।

फिलहाल सरकार ने उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) में संशोधन कर इस कानून को लाने का मन बनाया है। इससे राज्य की 37 लाख महिलाएं लाभान्वित होंगी। इस कानून के प्रभावी होने के बाद अब तलाकशुदा और नि:संतान महिलाओं को भी अधिकार मिलेगा। नए कानून के चलते महिलाओं को न सिर्फ भूमिधरी का अधिकार मिलेगा, बल्कि वे पति की पैतृक संपत्ति पर लोन भी ले सकती हैं। सरकार की इस पहल का स्वागत हुआ है। उत्तराखंड में महिलाओं को भूमिधरी के अधिकार की मांग विभिन्न सामाजिक और राजनीति संगठन लंबे समय से करते रहे हैं। सरकार के इस फैसले के बाद जहां महिलाओं के लिए आर्थिक स्वावलंबन के रास्ते खुलने की उम्मीद है, वहीं यह सवाल भी उठने लगे हैं कि जिस राज्य का अभी तक अपना कोई ठोस भूमि कानून नहीं है, वहां यह किस तरह से प्रभावी हो पाएगा। राज्य में सत्तर प्रतिशत लोग भूमिहीन की श्रेणी में आते हैं।

उत्तराखंड देश का एक ऐसा पर्वतीय राज्य है, जहां की अर्थव्यवस्था की धुरी महिलाएं रही हैं। जल, जंगल और जमीन की हिफाजत के अलावा वे यहां के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने की महत्वपूर्ण अंग हैं। पहाड़ में कृषि का पूरा जिम्मा महिलाओं पर रहा है। वे हाड़-तोड़ मेहनत कर इस जमीन पर ही अपना जीवन समर्पित करती हैं, लेकिन इस पर उनका मालिकाना हक नहीं है। दरअसल, कैबिनेट का यह प्रस्ताव अभी सिर्फ महिलाओं की भूमिधरी को लेकर लाया गया है। राज्य में घटती कृषि भूमि और जमीनों के साथ जो नए संकट खड़े हैं, उनके चलते यह कानून महिलाओं के लिए कितना लाभप्रद होगा, इसे यहां के जमीनों की मौजूदा स्थिति से समझा जा सकता है, जो अब नाम मात्र की रह गई है।

उत्तराखंड की पूरी भूमि में 63 प्रतिशत वन, 14 प्रतिशत कृषि, 18 प्रतिशत बेनाप-बंजर और 5 प्रतिशत बेकार है। आजादी के बाद सरकार ने पर्वतीय जिलों के लिए 1960 में एक अलग व्यवस्था की। ‘कुमाऊं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून (कूजा)’ बना, जिसने कृषि भूमि विस्तार के सारे रास्ते बंद कर दिए। इन पचास वर्षों में 9 प्रतिशत कृषि भूमि विकास कार्यों के नाम पर सरकार के खाते में चली गई है। सरकार महिलाओं को भूमि का सह खातेदार तो बनाना चाहती है, लेकिन भूमि सुधार के लिए कोई काम नहीं करना चाहती। प्रस्तावित कानून के आलोक में यह भी समझा जाना चाहिए कि आखिर सरकार महिलाओं को किस जमीन का हकदार बनाना चाहती है, जब राज्य में बड़ी संख्या भूमिहीनों की है।

आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड राज्य बनते समय 2000 में 8,31,225 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी। इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 35 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी। इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी। यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग। बाकी पांच एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी। ये आंकड़े बताते हैं कि लगभग 12 प्रतिशत किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है, बाकी 88 प्रतिशत कृषक आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच गई है।

ऐसे में सरकार महिलाओं को भूमि का खातेदार बनाने के जिस कानून को लाने की बात कर रही है, वह अच्छा होने के बावजूद यह मांग भी करता है कि राज्य में जमीनों का प्रबंधन हो। जमीनों की पैमाइश कराकर भूमिहीनों को जमीन उपलब्ध कराई जाए। रक्षित भूमि के नाम पर जो दस लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन सरकार के खाते में है, उसे मुक्त कर कृषि भूमि का रकबा बढ़ाया जाए। ऐसा होता है, तभी इस कानून का लाभ महिलाओं को लाभ मिल पाएगा। बिना जमीन के हकदारी का कोई खास मतलब नहीं रह जाता।

चारु तिवारी
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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