अब मनमर्जी के कानून तो नहीं बनेंगे

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इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के बारे में एक बात तय हो चुकी है। जब-जब इस आंदोलन की थकने, ठहरने और टूटने की चर्चा होती है, तब-तब यह नए स्वरूप में आगे बढ़ता है और फैलता है। अब तक 3 बार आलोचकों का मुंह बंद कर चुका यह आंदोलन चौथे चरण में प्रवेश कर रहा है। इस लिहाज से इसका चरित्र हनुमान जैसा है। इसकी शक्ति असीम है। वह समुद्र लांघ सकता है, पर्वत उठा सकता है, हर शत्रु को खत्म कर सकता है।

हनुमान की तरह किसान को भी अपनी शक्ति का एहसास नहीं है। अगर उसे सही दिशा देने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम राम मिल जाएं, तो उसे लक्ष्य प्राप्ति से कोई रोक नहीं सकता, उसे खत्म नहीं कर सकता। जैसे हनुमान भक्ति वैष्णव, शैव, शाक्य के संप्रदायों से ऊपर है, उसी तरह किसान आंदोलन पार्टी के झंडों से परे है। हनुमान की तरह किसान आंदोलन भी चिरंजीवी है। पहली बार इस आंदोलन ने अपने आलोचकों का मुंह नवंबर के महीने में बंद किया।

पहले दौर में पंजाब के भीतर अभूतपूर्व जन जागरण और आंदोलन चला। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने 9 अगस्त, 25 सितंबर और 4 अक्टूबर को तीनों कानूनों के विरुद्ध राष्ट्रीय कार्यक्रम आयोजित किए। तब तक यही कहा गया कि यह आंदोलन पंजाब तक सीमित है। आलोचकों ने यह भी कहना शुरू किया कि आंदोलन अपने शिखर पर पहुंचकर पंजाब में ढलान पर है। ऐसे में 26 नवंबर को दिल्ली चलो के आह्वान की अभूतपूर्व सफलता ने आंदोलन में नई जान फूंक दी।

जिस आंदोलन के पंजाब के भीतर घिरने की बात कही जा रही थी, उसने दिल्ली को घेर लिया। अब हरियाणा भी दमखम के साथ इस आंदोलन में जुड़ गया। किसान आंदोलन राष्ट्रीय सुर्खियों में छा गया। दूसरे दौर में किसान आंदोलन ने उन आलोचकों को झुठलाया जो सोचते थे की दिल्ली पहुंचकर 5-7 दिन से ज्यादा टिक नहीं पाएंगे। इस दूसरे दौर में किसानों ने सर्दी-बरसात की परवाह किए बिना दिल्ली को चारों दिशाओं से रखा।

ऐतिहासिक किसान गणतंत्र परेड से पूरे हुए किसान आंदोलन ने दुनिया में नए कीर्तिमान स्थापित किए। सिंघु, टीकरी, गाजीपुर और शाहजहांपुर के मोर्चे पूरे देश के किसानों के लिए तीर्थ स्थान बन गए। किसान आंदोलन ने हनुमान जैसी चिरंजीवी शक्ति का परिचय तीसरी बार तब दिया जब लाल किले की घटनाओं के बहाने इस आंदोलन को कुचलने का षड्यंत्र रचा गया।

पहले मीडिया के जरिए बदनाम करने, फिर स्थानीय लोगों के नाम पर पुलिस के संरक्षण में गुंडों के हमले, ऊपर से किसानों के खिलाफ मुकदमे ठोककर सत्ताधारियों ने सोचा कि आंदोलन को रातोंरात खत्म कर दिया जाएगा।

दरबारी मीडिया ने तो इस आंदोलन के अंत की घोषणा कर दी, लेकिन गाजीपुर के मोर्चे ने बाजी पलट दी। राकेश टिकैत के आंसू किसान के अपमान का प्रतीक बने और चारों दिशा से किसान मोर्चों की दिशा में चल दिए। स्वत:स्फूर्त तरीके से महापंचायतों का आयोजन इस दौर की विशिष्ट उपलब्धि रही। दबने की बजाय आंदोलन फैल गया। पंजाब और हरियाणा के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और राजस्थान में विशाल महापंचायतों का जो सिलसिला शुरू हुआ वो आज भी जारी है।

अब यह ऐतिहासिक आंदोलन एक चौथे चरण में प्रवेश कर रहा है। एक बार फिर मोर्चों में किसानों की संख्या घटने का प्रचार कर आंदोलन के उतार और बिखराव का दावा किया जा रहा है। सरकार की निष्ठुरता को उसकी मजबूती बताते हुए हवा बनाई जा रही है कि मोदी तो झुकेंगे नहीं, किसान खाली हाथ वापस जाएंगे। संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चल रहा ऐतिहासिक आंदोलन आने वाले दिनों में एक बार फिर अपने आलोचकों को झुठलाते हुए एक और शिखर तक पहुंचेगा।

अब किसान आंदोलन की रणभूमि उत्तर भारत के साथ-साथ दक्षिण और पूर्व भारत तक फैलेगी। तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा देने की मांग को तीखे तरीके से उठाया जाएगा। वोट के गणित के सिवा कुछ ना समझने वाली इस सत्ता को किसान वोट की चोट पहुंचाने का तरीका ढूंढेगा। सच यह है कि यह ऐतिहासिक आंदोलन एक ऐतिहासिक जीत हासिल कर चुका है। सच है कि तीनों किसान विरोधी कानून मर चुके हैं।

इस सरकार की ही नहीं, भविष्य में किसी भी सरकार की हिम्मत नहीं होगी कि इन तीनों या इन जैसे किसी भी कानून को लागू करे। सच यह है कि यह आंदोलन अब इन तीन कानूनों से आगे बढ़ चुका है। अब यह आंदोलन किसानों के अस्तित्व और इज्जत का आंदोलन बन चुका है। सच यह है कि यह संघर्ष अब सिर्फ इस सरकार के खिलाफ नहीं रहा। सत्ता बनाम किसान के इस युद्ध में देश के तमाम सत्ताधीश एक सबक सीख चुके हैं: किसान से पंगा लेना भारी पड़ेगा!

योगेंद्र यादव
(लेखक सेफोलॉजिस्ट और अध्यक्ष, स्वराज इंडिया हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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